पुस्तक दिवस पर विशेष
मन के एकाकी किसी
कोने में बस एक तुम
ही तो हो,जो
बचपन से आज तक
अनवरत रूप से
जुड़ी रही हो मुझसे
अवचेतन में जीवन के
नई चेतना का संचार करतीं
कभी कल्पनाओं को
साकार करतीं तुम
कभी पुरातन विचार का
बहिष्कार करतीं तुम।
बहुत से रूप हैं तुम्हारे
कहीं ज्ञान विशुध्द
तो कहीं कोरी कल्पनाएँ
कहीं कला की अभिव्यक्ति
तो कहीं मानस धारणाएँ।
कभी बह चलीं तुम चंचल
नदिया सी तो कभी
थम गईं एक ज़िद्दी
लम्हे की तरह जिसे
बीतना तो है मगर
गुजरने को तैयार नहीं।
कभी मन तक हो गयीं
सीमित मगर कभी
आत्मा तक घुसपैठ
तुम्हारी,करतीं मुझसे
बातें अनगिन,टोह
ले लेतीं मन की सारी।
सम्वेदनाओं का चरम
दिखाया है तुमने मुझे
जाने कितनी ही बार
जब जब हुई भावविह्नल,
रूह ने छलका दिए
चन्द मोती नयनों से,
जिन्होंने किया धूमिल
तुम्हें ही,मगर फिर भी
तुमने हमेशा दिया ही है।
लिखूं तुमको या पढूं तुमको
हमेशा ही कुछ पाती हूँ
तुम सा कोई दूजा दोस्त
मिल सकता ही नहीं
बस इसलिए
हमेशा ' पुस्तक',तुममें
मैं खो जाती हूँ।
डॉ पूजा मिश्र #आशना
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