सोई सुबह है ,सोया नज़ारा
ख़ामोश शामें न हमको गँवारा...
मौसम ने कैसा किया है इशारा
क़ुदरत का देखो क़हर गहराया....
रोते है भगवन,खफ़ा है ये मंदिर
घंटी का स्वर भी रूठा हुआ है...
सिसकती है धरती ये रात भर
ख्वाबों की गठरी गई है बिखर...
शामों शहर और चारों पहर
चुप चुप सा है कोई न आये नज़र ..
परिंदों सी उड़ती थी मैं बेख़बर
आसमां ने पर क्यूं दिए है क़तर...
ये अपनी ख़ता हैं ,खताएँ लिखें हम
सज़ा है ये हमको, सजाएँ लिखें हम...
चलो सर झुकाएँ ,उसे दें सदाएं
धरती है अपनी ,कुछ वादे निभाएँ...
*कान्ता अग्रवाल,गुवाहाटी
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