पिता को पा लिया
पन्द्रह साल में जो नहीं मिला वह इन पन्द्रह दिनो में मिल गया। शादी के बाद दस सालो तक घूँघट में रही। ससुर जो धीर गम्भीर रहते थे कभी बात तो दूर सामने भी नह़ी जाती थी।
चार साल पहले सासु माँ के गुजर जाने के बाद घूँघट तो हटा दिया लेकिन दूरी उतनी ही थी। बहुत जरूरी होने पर ही सामने जाती थी।
फिर स्कूल ज्वाइन कर लिया, कोचिंग क्लास जाने लगी, फिर तो समय ही बहुत कम मिलता था। जब पिता जी के सामने जाना पड़ता। एक संडे आता तो कुछ अच्छा बना कर खाने खिलाने में निकल जाता।
जब से लाकडाउन हुआ है दिन भर घर में रहने का मौका मिला, पिता जी को बच्चों के साथ खेलते मुस्कुराते देखा।
रोज शाम को रामायण पढ़ते थे, पर मैं कभी कमरे में नहींं जाती थी, पर अब शाम को कोई काम न होने से मैं भी उनके सामने बैठ जाती हूँ।
इतने सुंदर भाव से सुनाते कि मन करता बस सुनते ही रहें।
बहुत सारी पुरानी किताबें मुझे भी दी हैं।
रात को जब बच्चे बैठते तो मुझे भी आवाज लगा लेते हैं।और अपने बचपन की यादें हम सब से साझा करते हैं।
कभी इस तरह का समय ही नहीं आया इन पन्द्रह सालो में।
जिनको भैं बहुत गम्भीर और गुस्से वाली समझती वो तो बहुत सरल और सीधे व्यक्तित्व के धनी हैं।
डर के मारे कभीनहीं बताया कि मैं कविता कहानियां भी लिखती हूँ, जब पिता जी को यह पता चला तो उनकी खुशी देख कर ऐसा लगा जैसे दुनिया की सारी खुशियाँ दे दी हो मैनें उनको।
सच कहूँ तो मैनें लाकडाउन में एक बहुत बड़ी कमाई कर ली.एक पिता को पा लिया।
ज्योति शर्मा जयपुर
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