यह पूरी किताब लिख डाला, कविता, कहानी, गीत ग़ज़ल, समस्या सब कुछ लिख डाला और जब बारी आई इस पेज पर अपनी माता जी स्वर्गीय सरोज सिंह के विषय में लिखने की तो सोच ही खत्म हो गई। फैसला ही नहीं ले पाया कि क्या लिखूॅं? क्या कहूॅं? शब्द का जैसे आकाल पड़ गया हो। आखिर लिखूॅं भी तो क्या? बचपन से आज तक की कौन सी बातें छोडूॅं कौन सी बाते लिखूॅं? मैं तो घर-परिवार का ही नहीं पूरे समाज का सबसे खराब व्यक्ति था, जिसे मानव बनाने के लिए संभव ही नहीं असंभव प्रयास करने वाली उस देवी के विषय में क्या लिखूॅं, जिसकी आॅंखें रात के कितने पहर बीत जाये जब तक सीढ़ी पर चढ़ कर अपने कमरे में जाने की आवाज न सुन लें बंद नहीं होती थी। नींद तो नींद अपनी मौत आने पर भी जिसकी आंखें तब तक खुली रही जब तक मैं अस्पताल नहीं पहुॅंच गया। मेरे अस्पालत पहुॅंचने और उनकी आॅंखे बंद होने में महज 5 मिनट भी नहीं लगें।
मैं कक्षा 10 में तीन बार असफल रहा और सफल भी हुआ तो उनकी वजह से कक्षा 12 में भी दो बार असफल रहा और सफल भी हुआ तो उनकी वजह से। किसे नहीं बुलाया, किसके हाथ नहीं जोड़े मेरी सफलता के लिए। मैं तो कभी दुनियादारी के नजदीक ही नहीं गया, कोई समस्या का सामना ही नहीं किया, बस एक शब्द ही काफी होता था मम्मी ये समस्या, फिर वह समस्या चाहे खुद समस्या की समस्या हो दूर हो जाती थी।
मेरे उग्र व स्वाभिमानी स्वभाव से जब कोई परेशान हुआ तो उनके पास ही गया, मगर वो कभी कुछ सीधे नहीं कही, बस एक शब्द ‘अगर हो सके तो‘ इस से अधिक तो कुछ कहा ही नहीं। मुझे याद भी नहीं है कि 2017 से पहले मैने कभी कोई कपडृा भी खरीदा हो या फटा पहना हो। रोज बाजार जाना उनकी आदत थी, मगर कभी अपने लिये एक धागा खरीद लें, असंभव।पिता जी से वाक युद्व तो केवल दूसरो की मदद के लिए होता था। मौत से तो कभी डरी ही नहीं। एक बार नहीं दो बार नहीं कम से कम 5 बार तो मौत से पंजा लड़ा चुकी थी। समस्याएं तो उनके आगे आने से डरती थी।
एक प्रथम श्रेणी अधिकारी की पत्नी होने के बाद भी अंहकार तो छूकर नहीं गया था। आज हम जिस मकान में रहते है जब बन रहा था तो एक नहीं दस मजदूरो का खाना खुद बना कर गाॅंव के घर से लेकर आती थी सबको खिला कर भी शाम की तैयारी में। मुझे याद है वह साहित्य सरोज पत्रिका का पहला अंक आया था तो सबको फोन कर बताया कि मेरे नाम पर पत्रिका प्रकाशित हुई। हाॅं गुस्सा भी नहीं आता मगर जब गुस्सा आ जाता तो संसार का कोई भी टिक नहीं सकता था। दरवाजे पर आये किसी को बिना कुछ दिये तो जाने देने का सवाल ही नहीं उठता था। खिलाने, उपहार देने व फोटो का बहुत शौख था, हर कार्यक्रम में लोगो को पकड़-पकड़ कर खाना खिलाना, फोटो करना उनकी आदत थी। इस मामले में कभी जल्दी बाजी नहीं किया। बस मौत में जल्दी बाजी कर बैठी। 2017 के चैतीय नवरात्रि की छवी तिथि 2 अप्रैल को अस्पताल जाने को तैयार नहीं थी, पिता जी ने जब मेरा डर दिखाया तो शब्द यही निकले जबरदस्ती अस्पताल भेज रहे हैं तुरंत लौट कर आती हूॅं लाल चुनरी तैयार रखीयेगा, यहाॅं भी मेरी पत्नी से बोल पड़ी इलाज से अच्छा था 21 व्यंजन से मेरा ब्रहमभोज कर दो। लाल रंग तो उनका पंसदीय रंग था, जिंदगी भर लाल ही रही और मौत के साथ गई तो भी लाल रंग में।मैं नहीं जानता ऊपर क्या लिखा है,शुद्व लिखा है कि अशुद्व लिखा है बस ये जानता हूॅं कुछ लिख गया है। जिससे दुबारा पढ़ना नामुमकिन है। बस एक उद्वेश्य उनकी ख्याति संसार में फैला सकूॅं लिये चलता हूॅं। वो जहाँ भी हैं, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें।
जय हिद जय भारत जय गहमर
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