देखो विवेक,मैं तुम्हें समझाते समझाते थक चुकी हूंँ, ना तो तुम रोजाना स्कूल आते हो और न ही पढाई में तुम्हारा मन लगता है | क्या तुम्हारा मन नहीं करता कि पढ -लिख कर अच्छी नौकरी करो या फिर तुम्हें भी अपनी माँ की तरह मजदूर बनकर ही जीवन व्यतीत करना है (अध्यापिका ने थोड़े सख्त लहजे में कहा) तुम्हें पता भी है तुम्हारी माँ कितनी कड़ी मेहनत कर रही है तुम्हें पढाने के लिये... तुम क्या जानो पैसे का मोल?
12 साल का विवेक गर्दन झुकाए सब चुपचाप सुन रहा था कि तभी एक बच्चा तपाक से बोल पड़ा, "मैम ये जूस की रेहड़ी पर गिलास धोता है और कभी होटल में पोछा लगाता है |
कैसी विडंबना है ये ! जहाँ भूख का पलड़ा शिक्षा पर भारी पड़ रहा है| सच ही तो है पेट की आग के समक्ष नीति, दलील ,कानून सब धरे के धरे रह जाते हैं |
---©किरण बाला
( चण्डीगढ़ )
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