मंगरू का तीसरा नेत्र-सुनील


मंगरु,
ने जब से सुना है 
कि ज्यादा सीधा होना
ठीक नहीं
क्योंकि
जंगल के  सीधे पेड़
पहले  काटे जाते हैं 
तब से वह
टेढा़ बनना चाहता है !
पर,  टेढा़ बनना भी
आसान काम नहीं 
जो सदियों से
प्रकृति के साथ रहा
देता रहा सिर्फ
मीठे फल
मीठी बोली
वह अचानक
ज़हर कैसे बन जाए ? 
वह तो  
एक बांसुरी की तरह है
जो, अपने खोखले तन से
सिर्फ और सिर्फ 
मीठी धुनें बजाता है
कभी झूम झूमकर
नाचता है  और
भूखे पेट रहकर भी
कभी काटने नहीं दौड़ता 
जो पेड़ पौधों को भी
भगवान समझता है
वह इंसानों को कैसे
मिटा दे ?
पर मंगरु भी
आम का  पेड़ ही तो है
जिसके फल,  अब
पेड़ पर पकते नहीं
बीच में सूख जाते हैं
या  सड़ने लगते हैं
उसके जंगल तक
लोग पहुंच गए हैं
उनकी  गंदगी
बदबूदार नालों का ज़हर
अब उसके गांव
और आखरा तक
पहुंच गया है
मंगरु अब अपने
सीधेपन से भी
डर गया है
वह अपनी थकान
अपनी लाचारी को
पहले की तरह
महुए में डूबो दे
या  खोल दे
अपना तीसरा नेत्र ?
 
 *मंगरू और वोट* 
एक - एक 
वोट की की़मत
मंगरू से ज़्यादा
कोई नहीं जानता,
वह जानता है 
कि 
उसके लिए 
कभी ग़रीबी रेखा 
ऊपर चली जाती है 
कभी  नीचे 
और कभी 
मिट जाती है !
मंगरू को 
सभी समझाते हैं 
कि 
उसके 
एक एक वोट की 
की़मत क्या है ?
सारी योजनाएं 
उसी के लिए 
तो बनी हैं! 
चुनाव घोषणा पत्र  
उसी के लिए
तो बने हैं! 
पर,
वह 
अपने कुनबे के 
सभी लाल पीले कार्ड
संभाल  
निकल जाता है, 
अपने पुरखों की तरह
कोड़ा कमाने 
ताकि 
जब वह 
बरसात के पहले 
कर्मा मनाने लौटे 
तो उसके पास 
नए कपड़े हों 
और 
साथ में पूंजी भी
जिससे
वह 
अगली खेती कर पाए !
@स्वरचित


 



 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ