नारी और समाज -माधुरी


भारतीय सभ्यता-संस्कृति पूरे विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखती है, यह सत्य किसी से भी छिपा हुआ नहीं है।यहाँ स्त्रियों को देवी-तुल्य माना गयाहै। वैदिक काल से ही नारियाँ जहाँ एक ओर गृहस्थ जीवन के सम्यक संचालन में असाधारण रूप से कुशल एवं सक्षम रही हैं वहीं दूसरी ओर ज्ञान के क्षेत्र में विदुषी, शाश्त्रार्थ संचालन में पटु और मन्त्रणा देने में भी अग्रणी भूमिका निभाती रही हैं।हमारे पौराणिक धार्मिक ग्रन्थों में नारी का एक विशिष्ट स्थान रहा है।मनुस्मृति में तो नारी की पूजा पर भी बल दिया गया है-"यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता।"अर्थात जहाँ समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है वहाँ देवताओं(दिव्य गुण वालों ) का निवास होता है।इससे नारी की महत्वपूर्ण भूमिका स्वतः ही परिलक्षित हो जाती है।प्राचीनकाल से ही नारी महापुरुषों के जीवन को सँवारने में एक गुरु की तरह मार्गदर्शन करती आई है 
पौराणिक ग्रन्थों में नारी के चार रूपों का वर्णन किया गया है--माता,भार्या,पुत्री और बहन। अपने हर रूप में नारी अहम भूमिका निभाती रही है।हमारा समाज नर-नारी रूपी दो पहिये वाली गाड़ी है।नारी के सौम्य स्वभाव,त्याग,सेवा और दूसरों के प्रति स्नेह से ही समाज आलोकित , शुशोभितऔर पुष्पित-पल्लवित होता रहा है।प्राचीन काल से ही भारतीय इतिहास नारी के साहस और पराक्रम की गाथाओं से भरा हुआ है।प्रत्येक क्षेत्र में किसी न किसी रूप में वह पुरुष का सहयोग करती आई है।यहाँ तक कि देवताओं ने भी नारी शक्ति के सहयोग से ही राक्षसों पर विजय प्राप्त की।वैदिक काल की नारी जो शक्ति, साहस और प्रेरणा की अक्षय स्रोत थी,विद्वता, बुद्धिमत्ता, सहनशीलता और कार्यकुशलता का असीमित भण्डार थी ,मध्यकाल में मुगलों के आक्रमण से उस चरम बिन्दु पर ऐसा ग्रहण लगा कि उसी शक्ति रूपा को परदे के पीछे रहने को मजबूर कर दिया गया और वह अपने वास्तविक स्वरूप को ही भूल बैठी।जैसे- जैसे समय बीतता गया उसके वास्तविक स्वरूप पर धूल की परत चढ़ती चली गई और वह सबला से अबला बनती चली गई।उसकी इस दीन -हीन सामाजिक दशा को देखते हुए ही राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त की आत्मा से ये शब्द निस्त्रित हुए-"अबला जीवन, हाय!तेरी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।।" 
मध्यकालीन भारत में स्त्रियों की दयनीय दशा से हम भली भाँति परिचित हैं।सती प्रथा, बालविवाह, पर्दा प्रथा,वेद पढ़ने पर रोक आदि कई तरह की परम्पराओं में नारी को जकड़ दिया गया।आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती और सती प्रथा के उन्मूलनकर्ता राजा राममोहन रॉय जैसे समाज सुधारक महापुरुषों के अथक प्रयासों से समाज में व्याप्त नारी प्रताड़ना जैसी दुष्प्रवृत्तियों पर रोक लगा दी गई और नारी उत्थान के लिए सराहनीय कार्य किए गए जिसके फलस्वरूप महिलाएँ आज स्वतन्त्र भारत की स्वतंत्र नारी बनकर हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कदम से कदम मिला कर प्रगति पथ पर अग्रसर है।स्वामी दयानंद सरस्वती ने शशक्त वाणी में कहा था कि मानव के जीवन निर्माण में तीन व्यक्तियों का महत्वपूर्ण स्थान है-माता,पिता और शिक्षक। माता का स्थान सर्वोपरि है।बच्चे के गर्भ में आने से लेकर उसके जन्म,लालनपालन में माँ जितनी सजग रहेगी बच्चे का भविष्य उतना ही उज्ज्वल होगा।
एक सुदृढ़ समाज की रचना में नारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। बच्चे की प्रथम गुरु माँ ही होती है।यह नारी को ही तय करना होगा कि वह पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण न करे, विज्ञापनों की अश्लील सामग्री न बने और अपनी आदर्श परम्पराओं को सहेजते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर रहे।तभी सही मायने में नारी स्वतन्त्रता और नारी शशक्तिकरण सम्भव हो पाएगा और कवि पन्त का सपना साकार हो पाएगा जिसकी परिकल्पना करते हुए उन्होंने लिखा था-"नारी-मुख की छवि-किरणों से युग -प्रभात हो द्योतित!"अर्थात आने वाला भारतीय समाज उत्तरोत्तर प्रगतिशील होता चला जाएगा और उसकी प्रगति का प्रत्येक प्रातःकाल नारी- मुखमण्डलरूपी सूर्य की छविमयी किरणों अर्थात बहुमुखी प्रतिभाओं के प्रदर्शन से आलोकित हुआ करेगा।



माधुरी भट्ट पटना


 



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