एक दिन आपका में निशा की आत्मकथा
मेरा जन्म रामपुर उत्तर प्रदेश में 1962 में हुआ। मेरे पिता श्री बैजनाथ गुप्ता रामपुर शुगर मिल में चीफ इंजीनियर थे। माँ श्रीमती राधादेवी गुप्ता एक सरल स्वभाव की ईश्वर पर विश्वास करने वाली घरेलू महिला थी। माता-पिता ने हम नौ बहन भाइयों का पालन पोषण बहुत ही साधारण व साहित्यिक परिवेश में किया। भारतीय संस्कृति की नींव माँ ने ही हमारे जीवन डाली थी। माँ सभी त्योहारों व रीति रिवाजों पूरे नियम से करती थीं। "सरस्वती शिशु मंदिर" से कक्षा पांच तक की शिक्षा पूरी की। "विद्या मंदिर गर्ल्स इंटर कॉलेज" द्वारा इलाहाबाद बोर्ड से दसवीं और बारहवीं की परीक्षा "प्रथम श्रेणी" में पास की। इसके बाद "रुहेलखंड विश्व विद्यालय बरेली" से "बी.ए प्रथम श्रेणी" में तथा "एम.ए हिन्दी में प्रथम श्रेणी" में पास किया। 21 वर्ष की आयु में (बी.एड )के प्रारंभ में ही सन 1984 में ग्वालियर मध्य प्रदेश में विवाह हो गया। लगभग दो वर्ष ग्वालियर के "के.आर जी कॉलेज" में अध्यापन कार्य किया।
चूंकि पति असम के तिनसुकिया शहर में व्यवसाय करते थे, तो नौकरी छोड़कर हम तिनसुकिया आ गए। तिनसुकिया में हमने विभिन्न स्कूल व कॉलेज में लगभग 30 वर्षों तक अध्यापन किया। तिनसुकिया में रहते हुए ही समाज शास्त्र व दर्शनशास्त्र में भी. ए किया।
कक्षा तीसरी-चौथी से ही पुस्तकों की कविताओं को याद करके विद्यालय में उनकी प्रस्तुति करना बहुत अच्छा लगता था। जबकि अर्थ समझ में नहीं आता था। इस तरह कविता से लगाव तो बचपन में ही हो गया था। कुछ शब्दों के साथ तुकबंदी और खिलवाड़ चलता रहता था,पर हमने पहली कविता कक्षा दस में घर के आंगन में चारपाई पर बैठ कर लिखि थी। जिसमें प्रकृति चित्रण किया था।"था चांदनी रात का प्रथम पहर मैं बैठा था अपने प्रांगण में।"
और इस तरह फिर कविताओं का सिलसिला चल पड़ा। स्कूल की पत्रिका में, अखबार आदि में कविताएं छपती थी। जिससे उत्साह बढ़ता गया। हमारे कॉलेज में आशु कविता प्रतियोगिता होती थी उसमें हमारी रचना हमेशा प्रथम अाती थी। और हाँ, किसने सबसे ज्यादा प्रोत्साहित किया। इसमें अलग-अलग आयु में अलग अलग लोग थे। बचपन में पिता से बहुत प्रोत्साहन मिला। स्कूल कॉलेज में शिक्षकों से और विवाह उपरांत मेरे पति मेरी रचनाओं की आलोचना करते थे। इस तरह लेखन का सिलसिला चल पढ़ा। अब तक 45 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और पांच पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं। लगभग 31 पत्रिकाओं में और 13 समाचार पत्रों में लेख, कविता, जीवनी, निबंध आदि छप चुके हैं।
अब तक कविता, कहानी, निबंध, संस्मरण, लेख, जीवनी,बाल उपन्यास आदि पर लेखनी चलाई है और सतत् चल रही है।
मैंने अपने नाम के साथ "भारतीय" उपनाम यही कोई पांच साल पहले लगाना शुरू किया है। इसका मुख्य कारण तो यह है कि मैं भारत की रहने वाली हूँ इसलिए मैं भारतीय हूँ। हम सबकी एक ही जाति होना चाहिए और वह जाति है भारतीय। मुझे अपने आपको भारतीय कहने पर बहुत गर्व होता है इसलिए मैंने अपने नाम के साथ भारतीय लगाना प्रारंभ किया। मेरी अधिकतर रचनाएं समाज व देश को समर्पित है। मेरी पुस्तक "शिशु गीत"असम के पांच स्कूलों में चल रही है और मेरी एक कविता जिसका शीर्षक है "प्रयत्न" है। अमरावती विश्व विद्यालय के (बी. कॉम) प्रथम वर्ष में चार वर्षों से पढ़ाई जा रही है। पुस्तक का नाम "गुंजन" है।
मेरे बाल उपन्यास "जादूगरनी हलकारा" का असमिया भाषा में अनुवाद हुआ है और दो पुस्तकों पर अनुवाद का कार्य चल रहा है। साहित्य सेवा व समाज सेवा के क्षेत्र में देश-विदेश में अब तक लगभग लगभग 38 सम्मान मिल चुके हैं।
मैं "इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल न्यास", "शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास", विवेकानंद केंद्र कन्या कुमारी से , एकल विद्यालय, मारवाणी सम्मेलन समिति, लॉयंस क्लब, हार्ट केयर सोसायटी तथा अहिंसा यात्रा आदि संगठनों से जुड़ी हूँ।
"इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल" न्यास की मार्ग दर्शक, विदेश प्रभारी व संस्थापक हूँ।
एक लेखक को पहचान उसकी पुस्तकों के माध्यम से ही मिलती है। पाठक पुस्तक पढ़ने के बाद ही लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व से रूबरू होता है क्योंकि लेखक का लेखन उसके व्यक्तित्व का आइना होता है। पुस्तकों के माध्यम से लेखक युग-युग तक रोशनी फैलाता रहता है।
आज भी जब हम पचास-साठ साल पुराने लेखकों को पढ़ते हैं, तो लेखक का व्यक्तित्व हमारे समाने सजीव हो उठता है। हम उनकी पुस्तकों से लाभांवित होते हैं। वे सब अपनी पुस्तकों के माध्यम से अमर हैं। इसलिए सकारात्मक व उत्तम लेखन करना व पुस्तकों को प्रकाशित करवा कर जन मानस पहुँचाना मुझे अच्छा लगता है।
"जिसमें हित नहीं, वो साहित्य ही नहीं। पर आज साहित्य मंच की वस्तु बन कर रह गया है। गुप्त जी तो बहुत पहले ही लिख गए हैं। केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
साहित्य कोई हंसी मजाक की वस्तु नहीं है, कोई खिलवाड़ नहीं है। साहित्य समाज का यथार्थ होने के साथ-साथ सुधार भी है। साहित्यकार के कंधों पर समाज निर्माण की जिम्मेदारी होती है।
हम जैसा परोसेंगे, समाज वैसा ही लेगा इसलिए साहित्यकार को बहुत सोच समझकर अपनी लेखनी का उपयोग करना चाहिए।.मैं नारी को हर रूप में श्रेष्ठ मानती हूँ और उसको सम्मान देती हूँ क्योंकि नारी हर रूप में श्रेष्ठ है। छोटी सी कन्या के रूप में वह आशीर्वाद देती है। बहन के रूप में भाई की रक्षा के लिए तैयार रहती है। बेटी के रूप में पूरे परिवार की रक्षा करती है। पत्नी के रूप पूरे परिवार में खुशियों के दीप जलाती है और एक माँ के रूप अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। आज मैं जिस मुकाम पर हूँ, उसका सारा श्रेय मेरे परिवार के साथ-साथ मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति और मेरी कर्मठता को जाता है।
मैं लेखन कार्य में डूब चुकी हूँ जिस दिन अगर मैं कुछ न लिखूँ तो मुझे बेचैनी सी रहती है। लेखन मेरी मानसिक खुराक है। सभी लेखकों से मैं यही कहना चाहूँगी कि इस प्रक्रिया से सतत् जुड़े रहें। लेखन एक तपस्या है। खूब लिखें,अच्छा लिखें और कभी भी इससे संतुष्ट न हो। अच्छे लेखन की भूख कभी भी तृप्त न हो तथा अपने लेखन से परिवार, समाज, देश व विश्व का कल्याण करें।
निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम
9435533394
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