मै आई थी सब्जी लेने
खुली मिली कोई हाट नही
बारिस गिरने लगी यहां
मण्डी के खुले कपाट नही
इधर उधर देखा छिपने को
दिखा कोई अस्थान नही
अब मै कैसे बचने पाऊ
है नजदीक मकान नही
सोच रही थी इतने मे
पहले तो कुछ बुंदे आई
ली टोकरी पलट मैने
और अपने सिर पर लाई
और नही था साधन कुछ
थी मेरी जान बची ऐसे
ठीक अचानक मेरी टोकरी
बनी ओलो के हेलमट जैसे
अशोक कुमार जाखड़ निस्वार्थी
ढ़ाणा साल्हावास झज्जर हरियाणा
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