हमारे पड़ोस में एक छोटा परिवार रहता था । जिसे हम कुल्फी वाले चाचा कह कर बुलाते थे क्योंकि जीविकोपार्जन का साधन ही उनका कुल्फी बेचना था , गर्मियों में कुल्फी और सर्दियों में बच्चों के चने चबैने आदि बेचकर गुजारा करते थे ।
पूरे पड़ोसियों में सिर्फ हमारे और हमारी बड़ी मां के घर को छोड़कर सभी पता नहीं क्यों उनसे घृणा किया करते थे हमारे बाबूजी को वह बड़े भैया कहकर बुलाते और बड़ा सम्मान देते थे । और जब भी कुल्फी बेच कर शाम को घर वापस आते तो जितनी भी ( दो , चार , छः ) कुल्फी बचती वह मुझ में और अपने बेटे में बराबर बांट देते, और मैं भी शाम को उनके आने का बड़ी बेसब्री से इंतजार किया करती थी ।
लेकिन पता नहीं क्यों ! मेरी मां और बड़ी मां से पड़ोस के बाकी लोगों का आए दिन झगड़ा हो ही जाता था !! उस समय मेरी समझ बस इतनी थी और आती भी बस यही समझ थी कि " तू तो भूखों के घर की है ! शर्म नहीं आती उसके घर की कुल्फी खिला देती है लड़की को !! किसी दिन हमारे बच्चे भी चले गए तो !?
इस झगड़े के बाद मुझे डर लगता कि कहीं दूसरे दिन कुल्फी खाने से मां मना ना कर दे , क्योंकि झगड़ा भी तो इसी कुल्फी के लिए होता था पर बड़ी मां के मुंह से यह सुनकर कि "" हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा नहीं देंगे ! और ना कोई ऐसी बात सिखाएंगे !! तू तो भेजियो री छोटी ... जब दाऊ गुड़िया को कुल्फी को बुलावें , मैं देखूं तो सही कौन रोकेगा "" मेरे मन को तसल्ली हो जाती ।
और तब की यानी सन् १९८५ से १९९० के बीच की कुल्फी आज की कुल्फी से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट होती थी , तब शायद इतने मिलावटी लोग और मिलावटी माल दोनों ही नहीं थे । खैर .... समय का चक्र आगे बढ़ा और हमें बाद में समझ आया उस कुल्फी वाले की जो पत्नी थी यानी चाची वह बांझ थी , उन्होंने अपनी बहन के बेटे को गोद लिया था। परंतु मेरी समझ में यह बात आज भी नहीं आई ! इतने प्यार से रहने वाले पड़ोसी का इसमें कसूर क्या था ??
उन्हें लोग खरी-खोटी और दो चार गालियां भी दे देते थे लेकिन वह कभी किसी से द्वेष नहीं करते थे। और बिचारी चाची को हमने किसी भी बच्चे के साथ दुर्व्यवहार करते नहीं देखा ।जैसे-जैसे भाई-बहन बड़े हुए कुछ नौकरी के चक्कर में, कुछ शादी ब्याह करके अथवा अपनी अपनी मजबूरियों के चलते दूर होते चले गए ।
लेकिन उन पड़ोसी कुल्फीवाले चाची चाचा के द्वारा दी गई कुल्फी की मिठास मेरे मुंह में आज भी बरकरार है ।
ईश्वर से प्रार्थना है कि वे जहां भी रहे उनके जीवन में मिठास और ठंडक बनी रहे जैसे उन्होंने हम बच्चों के मुंह में निश्चल निष्काम भाव से मिठास घोलते रहे थे।
संतोष शर्मा " शान "
हाथरस
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