आलोचना:: परिवार विमर्श के अनचीन्हे आयाम कहता झूला नट -डॉ सन्दीप अवस्थी, अजमेर राजस्थान
एक रस्सी बंधी है दो बांसों पर और उस पर दस बारह साल की लड़की हाथ मे बांस लिए संतुलन बना रही है। नीचे खड़ी दुनिया तमाशा देख रही है यह सोचते हुए की प्रभु हम नही हुए इसकी जगह ,तेरा धन्यवाद। जबकि हम सब नही जानते कि यह झूला नट का चक्कर हम सबके साथ लगा है ।ऐसा लगा है कि रस्सी कहाँ बंधी है हमे ही नही पता। ऊपर से संतुलन साधने का बांस भी हमे नही दिया ऊपर वाले ने तो, अनेक बार गिरते, पड़ते ही जिंदगी खत्म हो जाती है हम आप जैसे लोगो की तो। बस इतनी सी कहानी है हमारी लेकिन झूला नट की शीलो हो,या बालकृष्ण या अम्मा सभी को झूला नट से जीवन में संतुलन मिलता है पार पाने के लिए। अब यह अलग बात है कि कोंन कितना पार हुआ और कितना डूबा।
झूला नट एक ऐसी दास्तान है जहाँ सभी किरदार सान पर चढ़े अपनी नियति को ढोने को विवश हैं। सब कुछ खत्म होने की कगार से तो यह लघु उपन्यासिका प्रारम्भ होती है। यही बात मुझे आकर्षित करती है इसके पुनर्पाठ को जिससे आप सभी इन अति साधारण किरदारों,कम पढ़े लिखे से जीवन जीने की कला सीख सकें। सच तो यह है यह कला जीवन, लोक में जा जाकर उससे मुठभेड़ करके ही आती है हर एक को। जो जब जिस मोड़ पर बचा मुठभेड़ से समझो वह उतने ही साल और पीछे गया। रिल्के कहते हैं, "जीवन मे मुठभेड़ों, नए मोड़ो,परिवर्तनों का स्वागत करें। जरूरी नही वह हर बार नकारात्मक हो।"
बेतवा बहती रही,इदन्नम, चाक, अल्मा कबूतरी अगनपाखी, कही ईसुरी फाग, त्रिया हट, गुनाह बेगुनाह,फरिश्ते निकले आदि उपनयास ।बहुचर्चित आत्मकथ्य कस्तूरी कुंडल बसे ,गुड़िया भीतर गुड़िया के मध्य यह झूला नट विलक्षण पहचान छुपाए है। इसका पाठ हर स्त्री पुरुष को करना चाहिए कि कैसे अदम्य जिजीविषा और साहस से छिन चुके जीवन को दुबारा पटरी पर लाया जा सकता है। इंसान छोटी छोटी चीजों से जीवन रस और खुशी पा सकता है।
अथातो झूला नट कथा पढ़ने वाले आम श्रोता हो या आलोचक या नए लेखक सबके लिए यह कथा दिलचस्पी जगाती है। क्योकि कथा के पहले पृष्ठ पर ही हम पाते हैं गावँ के घर मे पहले पति से छोड़ी शीलो (नायिका) और भरी जवानी विधवा हुई सास की लड़ाई।शीलो से आठ दस साल छोटे देवर और अब नाते से खसम बालकृष्ण (बालू,सहनायक) को लेकर । अम्मा कहती हैं, "जगाए देती हूं खसम को बेरी पूत नींद सुख ले रहा है और यह बाघिन छोड़ रखी है।" जवाब में शीलो कहती है , " जब देखो डुकरो कांटो की झाड़ पर चढ़ी रहती है । दे अबकी बेर गाली ?" उधर बालकिशन यह सब सुनकर के लेटे का लेटा रहता है और भीतर ही भीतर कराहकर कहता है ,"आय डुकरो ते कब मरेगी। इस दृश्य के बाद पाठक देखते हैं यह आम घर का दृश्य ना रहकर के बुंदेलखंडी बोली में तीनों पात्रों की अपनी पहचान मजबूरी और अपनी सीमाएं भी बता देता है । हालांकि तीनों अपनी अपनी सीमाएं पहचानते हैं उसके एकदम उठान पर आ जाते हैं । लेकिन कभी सीमा नहीं लांघते। यही लेखिका की सार्थकता है कि सीमितता में वह असीमितता का वर्णन कर देती हैं। यही हमसे परिचय होता है बिल्कुल बराबरी से नायिका शीलो को चुनोती देती अपनी दृढ़ता,व्यवहारिक बुद्धि और गावँ टोले को संभालती साठ से ऊपर की अम्मा से।
बालकिशन रातभर मन्दिर के जागरण ,भंडारे को निपटाने के बाद थकान के मारे लेटा हुआ कराह रहा है । " बालू ओ मोरे बेटा ,अये दो घूंट दूध तो पी ले मेरी तो सांस में सांस रहेगी तब तक पूछूंगी अपने लाल को । लुगाई रंडी तो सोख मौज की संगी साथिन हैं। कहती हुई मां मेले आंचल में कांस्य कटोरा छिपाए हुए, रोम रोम से ममता झरती आ जाती है और बालकृष्ण को दूध दलिया से भरा कटोरा निकालकर पिलाती है । उसे दूध दलिया खाते देख मां का पेट जैसे भरता जा रहा हो और वे संतुष्ट हो जाती हैं और फिर चुपचाप फुर्ती से मां बाहर चली जाती हैं जैसे शीलो को पता ना चल जाए। तभी नहाई धोहि लाल चोले में सजी निखरी शीलो हाथ मे कांसे का चमचमाता बेला(बर्तन)।" चमची से कहां तक खाओगे चलो पी लो जल्दी-जल्दी" कहकर बालकिशन के मुंह से दूध दलिया का बर्तन लगा देती है। और होट बढ़ाकर उसके गाल चूम लेती है ।अब बालकिशन दोबारा खा रहा है, प्यार के नशे में है। तभी शीलो की आंखें खाट के नीचे पड़े बर्तन को देख लेती हैं । " अच्छा तो माताजी पहले ही मेहर कर गई। बालकिशन गुमसुम। उधर से अम्मा की आवाज अचानक से कोठे में कूद पड़ती है , "हम अपने पूत को दस बेर खबाएँ की लाँघिन (भूखे) राखें , तू कौन ?" और इसी के बीच में एक के बाद दूसरी पटखनी देते हुए कथा परवान चढ़ती है।
राजेन्द्र यादव ( जी हां, भूमिका उन्होंने ही लिखी ) कहते हैं, " पता नही यह कथा बालकिशन की है या शीलो की। पर अंत तक प्रकृति और पुरुष की यह लीला एक अप्रत्याशित उदात्त अर्थ में उद्भासित होती है।" यहां सांख्य दर्शन का विद्यार्थी होने से मैं सहमत नही। क्योकि सांख्य दर्शन में प्रकृति ,जड़ परन्तु सक्रिय,उतपत्ति कारक ,अचेतन है । और यहां शीलो न तो जड़ है न अचेतन।बल्कि वही है जो क्रियात्मक बल है।सांख्य का पुरुष यानी जीवात्मा, चेतन परन्तु निष्क्रिय है।उसमें प्रकृति के सानिध्य से ही सक्रियता आती है इस अर्थ में बालकृष्ण को मान सकते हैं। लेकिन मुख्य पात्र शीलो, वस्तुत: प्रकृति और पुरुष दोनों को अपने में समाहित किए हैं। वह सही अर्थ में इस उपन्यास रुपी जीवन के आख्यान को नई ऊंचाइयां देती है। लेकिन माता राम का जो पात्र है वह वस्तुतः इस सारी लीला संसार को निस्पंद भाव से नहीं देखता बल्कि वह समय-समय पर अपनी सक्रिय उपस्थिति और उत्प्रेरक शक्ति से दोनों ,शीलो और बाल किशन की, राहों को सुगम भी बनाता है उनके कांटे हटाकर या चुनकर । तो वहीँ कई बार उन्हें सीमाओं का उल्लंघन न करने की चेतावनी भी देता है । हालांकि चंचल प्रकृति बार-बार सीमाएं लांघती है ।लेकिन अम्मा जी के रूप में उसी प्रकृति का पुराना अंश उन सीमाओं को पहचानता है और उन्हें रोकता भी रहता है । यह झूला नट की कथा इस अर्थ में विलक्षण है कि यहां पात्रों की भूमिका बदलती रहती है। प्रारंभ में लगता है कि दो सिरे रस्सी के शीलो और अम्मा के हैं उनके मध्य में संतुलन साधता सा बालकृष्ण है। कहीं लगता है अम्मा और बालकिशन के मध्य संतुलन करती घर को संभालती और समाज के ताने बाने से निपटती शीलो है झूला नट। और यह पाठ भी उभरकर सामने आता है कि गावँ के लोगो से अपने परिवार की मान प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखती, समाज और बहु की मनमर्जी उमंगों के मध्य संतुलन रखती अम्मा हैं दरअसल झूला नट की नायिका।
समकालीन कथा जगत बनाम झूला नट
मैत्रयी की खूबी यह है कि कोई भी चरित्र टेड़ा नही , न ही संत सा उजला है। वह अपने अपने मानवीय दोषों और जरूरतों से मुक्त नही हैं। वह हालात के शिकार भी होते हैं, दुख के बादल भी हैं तो उन्ही के मध्य कुछ सुख के छींटे भी हैं। भले ही वह चिरनार ,कस्बे से चोली,गीतों की किताब या मां की दवाई लाना ,या बरसो बाद पहली बार आई साली के लिए खुशबूदार तेल,चप्पल, कपड़ा लाना ही क्यो न हो। इन सब छोटी छोटी बातों से तीनों प्रमुख पात्र अथाह दुख के माहौल में भी जीवन के सूत्र तलाश लेते हैं। वह सभी दृश्य साकार हो उठते हैं जिसने जरा भी ग्राम जीवन का अनुभवः किया हो।
साथ ही हिंदी साहित्य जगत की बात करें जहां इनकी समकालीन लेखिकाएं महानगरों, टूटते परिवार,विदेश यात्राओं सरीखी कथाएं लाती गई,अनवरत जो बनावटी लगती। चाहे वह मृदुला गर्ग , अलका सरावगी, मधु कांकरिया हो या राजेन्द्र यादव स्कूल ऑफ लिटरेचर(एंड रोमांस) की प्रभा खेतान,गीताश्री या अन्य कोई वह सब अपनी मर्जी से ही कहानी उसी माहौल की बुनती जो उनका जिया था । और वह नाकाफी था। हालांकि चित्रा मुद्गल, मुम्बई मिल मजदूर और उनकी समस्याएं, ममता कालिया नोकरी पेशा स्त्री और उसकी दिन प्रतिदिन की बातो पर लिखती रहीं पर वह नाकाफी था। काफी बाद में शरद सिंह ,पँचकौड़ी, हाशिये के लोगो ,नटनियों, बेड़नियों पर लिखी ,उनसे और उम्मीदे हैं। लेकिन मैत्रयी जैसी भाषा और ठेठ गावँ के मुहावरे,चलन लेकर आईं वह विलक्षण रहा। उनकी स्त्रियों के मनोभाव, इच्छाओं, त्रिया चरित्र की जरूरत और मजबूरी वह भी परिवार और खुद अपने जीवन के हित मे लेकर आईं। साथ ही उसकी मन के मीत से बातचीत,उसकी उमंगों,योन आकांक्षाओ का सहज चित्रण सब कुछ हिंदी साहित्य की दुनिया मे नया और अध्भुत परन्तु जमीनी धरातल पर था। कोई भी ऐसी घटना,या प्रसंग ऐसा नही जो गावँ देहात ,कस्बे में होता न हो। तभी नामवर जी जैसे शीर्षस्थ आलोचक को भी कहना पड़ा कि ," इस लेखिका (मैत्रयी) ने हिंदी कथा साहित्य जगत का मुहावरा पलट दिया है। "
एक सच यह भी है कि ग्राम की स्त्रिया अपनी सोच ,व्यवहार और करनी में खुली खुली होती है। वहीँ शहरी स्त्री शिक्षित होने के बाद भी (या उसी के कारण) अपने व्यवहार और करनी में अंतर रखती है। वह जो है,जो चाहती है उसे बताती नही। कहती नही और मूर्खता की हद यह कि सोचती है कि एक दिन बिना कहे कोई उसके मन की बात समझ लेगा। स्वाभाविक है ऐसा होता नही और वहीँ से प्रारम्भ होती है एक दुखी स्त्री की दुख भरी कहानी।जिसमे विलेन ,स्वाभाविक है पुरुष ही होता है। मैत्रयी स्वयं भी और उनके पात्र भी इस अर्थ में अनूठे और सच्चाई के नजदीक है कि वह अपने हालात,दुखो को लेकर रोने नही बैठते ,दोषी को कोसते चक्की में पिसाई नही करवाते । बल्कि वह अपनी हालात समझकर,अपनी क्षमताओं को जुटाते हैं,हिम्मत की सांस भरते हैं और चल पड़ते हैं अपनी किस्मत ,दुखो से दो दो हाथ करने। वह अपने जैसे ही दूसरे मजलूम को अपनी हालात का दोषी ठहराकर अपने लिए सहानभूति नही मांगते। बल्कि वह दो चार गालियां (यह जरूरी भी हैं,कभी आप भी कोशिश कर देखें) देकर उसे पीछे छोड़ आगे चल पड़ते हैं । अपनी खुदी को बुलंद करने और अक्सर वह सफल होते हैं ,जीतते हैं ,भले ही पूरा सुख न सही पर आधा अधूरा सुख ले ही लेते हैं। अपनी नई दुनिया नही बसाते बल्कि उसी दुनिया को अपने जीने योग्य बना लेते हैं। और याद रखे वह कोई त्याग,तपस्या ,पूजा नही करते बल्कि जीवन के हर रंग को जीते , भोगते ,आनंद के साथ बेधड़क उसी दुनिया मे रहते हैं। अवसाद, बोलचाल बंद, घुटन,या किसी बाह्य प्रेरक का तो मैत्रीय के पात्र नाम भी नही जानते। यह बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण बात मैं रेखांकित करूँगा की वह पात्र जैसे हैं ,वेसे ही आगे बढ़ते हैं और लगभग छूट चुकी जीवन की पतंग को फिरसे थाम लेते हैं। और उसे अपनी मर्जी से उड़ाते,घुमाते ,हंसते हैं। जैसा वास्तविकता में होता है ईश्वर भी उन कमबख्तो का ही साथ देता है।
झूला नट से मिलते जीवन सूत्र
बुंदेलखंड के कवि की पंक्तियां हैं," जिंदगी को वह गड़ेंगे जो शिलाएं तोड़ते हैं / जो भागीरथ नीर की निर्भय शिराएं मोड़ते हैं "(केदारनाथ अग्रवाल) । इसी मिट्टी की हैं मैत्रयी जी और उनके पात्र।कई जगह टूटने,बिखरने की स्थितयों को बिना विवाद के संभालने के सूत्र देखे शायद एक समाज विमर्श का पाठ खुले।
सामान्य परिवार ,बड़ा बेटा सुमेर दरोगा बन कर के बाहर चला जाता है। पीछे 12 वीं फेल सत्रह अठारह साल का छोटा भाई, विधवा मां और नई नवेली पत्नी को छोड़ जाता है । जब 5 महीने बाद आता है और पत्नी के पास नहीं जाता तब यह भेद खुलता है कि सुमेर ने शहर में कोई गृहस्थी बसा रखी है ।अब यह देखें इस चौंकाने वाले खुलासे के बाद शीलो जो नवविवाहिता है उसकी प्रतिक्रिया। गांव में रीति रिवाज है लड़ सकती है, अपने मायके बैठ सकती है और चाहे तो शहर जाकर के उस कलमुही की चोटी भी खींच सकती है । लेकिन यह सब नहीं करती , यथास्थिति भी स्वीकार नहीं करती। वह करती है अपने कर्तव्य ,अपने कर्मों का निर्वाहन। क्योंकि वह जानती है यहां से निकल जाएगी तो आगे जिंदगी में अंधेरा ही अंधेरा है। इस स्थिति में सम्बल बनती है आत्मा पर बोझ लिए बैठी मां। उसकी हिम्मत बनती है। आठ -नो साल चले जाते हैं लेकिन सुमेर का व्यवहार नहीं बदलता है ।और देवर 17 साल का अब पच्चीस साल का हो गया है ।अम्मा शीलो के दुख और धैर्य के साथ में पूरे घर द्वार के काम करना। एक दिन कह देती हैं मैं अपना छोटा बेटा बाल किशन तुझे देती हु। रोचक बात यह है कि बालकिशन से नही पूछा जाता है। यह फैसला अम्मा के मजबूत स्तंभ होने का प्रमाण भी है। बालकिशन जो पढ़ाई में कमजोर था, खेती-बाड़ी संभालता सामान्य कद काठी का है जो बड़े भाई से डरता भी है। शीलो ,उसकी भाभी अम्मा की आंखों के सामने ही है। कोई उसका गांव में चक्कर नहीं चला है, चाहती तो चला सकती थी। लेकिन वह जीवन के जुए को खींचती हुई इंतज़ार करती है। और अम्मा की बात को मानकर देवर से नाता जोड़ती है। बड़ा ही रोचक और मनोविश्लेषण करने वाला यह प्रसंग है। जिस कुशलता से लेखिका दस बरस बाद ,देवर से भले ही सामाजिकता से नाता जैसा ही सही, शीलो की ,एक नारी की उमंगों,जीने की खुशी और अपना सर्वस्व अपने चाहने वाले पर न्यौछावर करने का वर्णन करती हैं वह अनूठा है।
श्रंगार, मनुहार,प्यार के अलग-अलग रंग है । बालकिशन शुरू में जिझकता है। पर जब वह देखता है कि जीवन उस पर मेहरबान है तो वह भी उस रंग में रंग जाता है। लेकिन मुश्किल क्षण आता है। जब एक साल बाद सुमेर दरोगा बड़ा बेटा घर आता है। उसकी सूचना से डर बाल किशन कहीं छुप जाने की कोशिश करता है। डरता है कि बचपन में उसे पढ़ाई न करने पर पीटने वाला हट्टा कट्टा बड़ा भाई ना जाने उसे इस अपराध की क्या सजा देगा? बहुत ही दिल को छू लेने वाला वर्णन है । बालकिशन देखता है कि भैया आए हैं छह फुट्टे रोबदार। उस दिन शीलो नहाकर के लाल साड़ी पहनकर के भैया की पसंद का खाना बना रही। और मां भी अपने थानेदार बेटे के स्वागत में बिछी जा रही । सुमेर के पास खाना परोसती रोटी डालती जब शीलो को देखता है उसका दिल धड़कने लगता है । वह बड़े करुण भाव से सोचता है है तो यह इसी की पत्नी मैं तो यूं ही बीच मे आ गया ।अभी वापस अपने पति के पास चली जाएगी ।उसकी आंखें भर आती हैं और वह दुछती में जाकर लेट जाता है। शाम को भोजन के बाद सुमेर अपनी मां के सामने शीलो को जरूरी बात करने एकांत में ले जाना चाहता है । शीलो एक मजबूत स्त्री बनकर फिर सामने आती है और एकांत में जाने से इंकार कर देती है। सुमेर जरूरी बात कहने के लिए मां को भी साइड में बुला लेता है।फिर कहता है कि अब यह दोनों तो एक हैं तो तुम मेरा हिस्सा खेती-बाड़ी आदि लेकर के मैं शहर में ही बस जाना चाहता हूं ( पृष्ठ 112, झूला नट)। यहां जो व्यवहारिक कुशलता और समझदारी परिवार विमर्श में स्त्रियों में होनी चाहिए उभरके सामने आती है। शीलो बहुत प्यार से कहती है कि हमारा और बालकृष्ण का नाता नहीं हुआ है। हम तुम्हारी ब्याहता हैं ,शहर वाली नही है । और हम चाहे तो अभी अपना हक ले सकते हैं ।थानेदार सुमेर हक्का बक्का रह जाता है कुछ कह नहीं पाता । शीलो आगे कहती है बालकृष्ण का हिस्सा उसका हिस्सा है लेकिन तुम्हारे हिस्से में हम बराबर से हैं और यह अब कायदे से हमारा ही रहेगा। संकेत स्पष्ट है और सुमेर मां की ओर देखता हैं। यहां फिर मां का मौन मजबूत बन के सामने आता है और वह शीलो की बात का विरोध नहीं करती । उधर दुछत्ती से नीचे आकर बालकृष्ण यह सब सुनता है और शीलो को भैया पीट न दे तो वह खांसकर अपनी उपस्थिति बताता है। शीलो भी हाथ भर घूंघट काढ़ लेती है क्योकि सुमेर तो अब जेठ हुआ। फिर वह चला जाता है और कथा बढ़ती है। वही परिवार के शाश्वत सूत्रों को लेकर। जिसमे अम्मा से शीलो की गाली गलौज भी हैं। तो अम्मा के शीलो और बालकृष्ण को अपने खेतों में प्रेमक्रीड़ा से रोकने की चेतावनी भी। पर समाज को मजबूती से जवाब अम्मा ही देती हैं और शीलो बालू के पक्ष में खड़ी नजर आती हैं। मानो भरी जवानी के अपने वैधव्य के संताप को शीलो के माध्यम से भर रही हो।
कथा अंदर कथा कहते इस उपन्यास का उत्तर संधान भाग भी आना चाहिए। इस कथा में किस तरह से प्रकृति ने परिवार को ,जीवन को और खुद नारी को एक मजबूती एक दृढ़ता और साहस प्रदान किया है यह हिंदी कथा संसार मे विशिष्ठ है। जहां अभी भी फैशनेबल लेखिकाएं ही नजर आती हैं जो पतनशील पत्नियां,लिव इन या दूर की कहानियों को ही साहित्य मानती हैं। कुछ ऐसी हैं कि अपने प्रेम,फिर विवाह,फ्लेट देखने,फिर प्रेग्नेंसी और अलगाव आदि को विलक्षण,विरला अनुभवः मान उसी पर कविता, कहानियों की रचना करती हैं। मानो यह उनके अलावा किसी और स्त्री के साथ तो हुआ ही नही। हंसी आती है और दुख भी होता है कि यह है दिल्ली की नई पीढ़ी की लेखिकाएं। पढ़ना तो मानो गुनाह है इनके लिए। चंद अच्छी किताबो के नाम पूछकर तो देखिए इनसे, बुरा मान जाती हैं।
ऐसे समय में लोक की बात कहती लोक से ही आई मैत्रयी पुष्पा नया तो नही बल्कि उपेक्षित, छुटा हुआ पाठ पूरा करती हैं तो यह स्वागत योग्य है।
हालांकि झूला नट का अंत जल्दबाजी में और किसी अन्य दृष्टिकोण से है तो वह कमजोर है। हालांकि झूला नट में कुछ प्यार भरे लम्हे दिलचस्प हैं जिन्हें अपनाना चाहिए।खास अपनी पत्नी समान शीलो के लिए बाजार से वस्त्र विशेष की खरीदारी और संकोच,खुशी,उत्कंठा में अम्मा की दवाई भूल जाने का प्रसंग बहुत रोचक है ।खासकर कस्बे से गावँ लौटने पर दरवाजे पर ही खाट डाले लेती अम्मा का हाथ पकड़ बालकिशन को बैठाना। बहुत खूबसूरती से सभी के जीवन मे पहली बार आने वाले उन पलों को पकड़ा है। बारह उपन्यास सहित फाइटर की डायरी, चर्चा हमारा,फरिश्ते निकले,सुनो मालिक सुनो आदि में बिना किसी शोर शराबे के स्त्रियो और उनकी हिम्मत की दास्तान मजबूती से कहती हैं। अभी अपेक्षा है कि लेखिका निरन्तर सक्रिय रहे विराम न लें। हिंदुस्तान की माटी की खुशबू और उससे जुड़ी जीवंत कहानियों को वह सामने लाती रहें। काश हम हर राज्य से एक मैत्रयी पुष्पा ढूंढ पाते। राजेन्द्र यादव की पारखी नजर और देश के लिए तराशी गई ठेठ ग्रामीण परिवेश की लेखिका को हमे देने के लिए आभार। अपनी आत्मकथा में आभार व्यक्त किया है लेखिका ने । उनकी कथा यात्रा पैंतालीस वर्ष की आयु में,तीन बड़े बच्चो ,पति घर गृहस्थी के मध्य प्रारम्भ हुई। बहुत सारा साहित्य उन्हें राजेंद्र यादव ने पढ़ने को कहा । और उतनी ही मेहनत से उन्होंने पढ़ा भी। पहली कहानी एक साल तक सुधारने के बाद हंस में आई। यह खुद में अदम्य इच्छाशक्ति और लगन का परिणाम है।क्या आज कोई है जो इससे आधी भी मेहनत कर सकें?
सन्दर्भ
१. रिल्के के पत्र, संपादन राजी सेठ, साहित्य अकादमी, 2011 संस्करण ।
२.झूला नट,मैत्रीय पुष्पा, मूल 1999,5वाँ सं.2018,राजकमल प्रकाशन ।
३. झूला नट,भूमिका, पेज 5, राजेन्द्र यादव ,भूमिका
४.प्रगतिशील वसुधा,अंक 95, स्वयंप्रकाश,राजेन्द्र शर्मा,2013
५.पतनशील पत्नियों के नोट्स, नीलिमा चौहान, ,2018,वाणी प्रकाशन ।
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