एक दिन आपका कालम के तहत प्रकाशित
प्रकृति का अब हमसे यही सवाल है
मानव तुझे किस बात पे इतना गुमान है
अपनी भोग विलासिता में तू
काटे अंधाधुन पेड़ पतवार तू
पंछी चिड़िया सहम गए है
उनके घोसला उजड़ रहे है
पढ़ लिख कर भी तू अनपढ़ मानव
क्यूँ न समझे तू प्रकृति के मोल को
जंगल नदिया सुख रही हूँ
पीपल बरगद सिसक रही हैं
तेरी खुद की सांसे तड़प रही हैं
अब भी संभलो ये विचलित मानव
प्रकृति शक्ति में ही जीवन का आधार है
शुद्ध स्वच्छ वायु से जुडी तेरी हर सासो की डोर है
प्रकृति के आँचल में ही कई रोग व्यधियो की तोड़ है
मेरी हरियाली से ही मानव तेरे घर खुशहाली है
घुटन भरी सासो से अच्छी प्रकृति माँ की फुलवारी है
मत काटो अपनी प्रकृति माँ के उपवन को
छिन जायेगी तेरी वात्सल्यता अपनी ही माँ के आँचल से
एक दिन यैसा आएगा जब तड़प तड़प और सिसक सिसक
कर याद करोगे अपनी प्रकीर्ति माँ की शक्ति को.....
प्रकृति का अब हमसे यही सवाल हैं
मानव तुझे किस बात पे इतना गुमान है।
अनुभा वर्मा (पटना)
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