जब कोई मानव अपनी मानवता भूल जाए , मर्यादा की सीमा पार कर जाए तो आप क्या करेंगे ! स्वाभाविक है ऐसे में आप का क्रोध भड़केगा । आपको अपनी संपत्ति से आपके घर से यदि कोई निकालकर अपना हक जमाए तब आप क्या करेंगे ? यही ना ! पहले उसे प्यार से समझाएंगे फिर चेतावनी देंगे अथवा उसके ना मानने पर अंत में अपने बल का प्रयोग करेंगे । भाई वह आपका है तो आप कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं किसी दूसरे को !?
तो फिर आप क्यों वही कर रहे हैं जो आप स्वयं के साथ नहीं चाहते। वह भी उसके साथ जिसने आपसे लिया नहीं वरन पीढ़ियों से आपको सिर्फ और सिर्फ दिया है फिर भला ऐसा कौन है जो बर्दाश्त करेगा ! जी हां मित्रों !! हम बात कर रहे हैं प्रकृति की , जब प्रकृति अपनी जगह मांगती है वह भी जो आपने हमने उससे बल पूर्वक हथिया ली है तो कैसा क्रोध , कैसा रोना, और क्यों शिकायत प्रकृति ने अपार भंडार दिए हैं हमें आपको जिससे कि हमने अपनी भौतिकवादी सुख-सुविधाओं को जुटाकर उसका आनंद पूर्वक भोग किया है / कर रहे हैं ।परंतु इसके बावजूद हम वहां भी भोग के लिए पहुंच जाते हैं जहां हमारे भोगने (अनैतिक कृत्य ) के लिए नहीं वरन स्वयं के ध्यान, योग ,चिंतन मनन व शांति के लिए है ।
जी हां मित्रों ! इस बात को आप हम चाहे आस्था व वैदिक रूप से देखें या वैज्ञानिक रूप से विचार कर अपनी दृष्टिकोण से देखें सच यही है कि कुदरत की ही देन है यह जीवनदायिनी प्रकृति और प्रकृति की देन है हमारी अपार वन जल और जीव संपदा ।
जिस कुदरत ने समस्त जगत को जीवन दिया उसने ही समस्त जीव धारियों के लिए सौंदर्य और संजीवन के भंडार से परिपूर्ण प्रकृति की अपार एवं अमूल्य संपदा भी दी है। जिसे सदियों से हम जीव धारियों के जीवन और जीवकोपार्जन का साधन भी उपलब्ध कराती रही है हम आज इस प्रकृति की शक्ति एवं उसके प्यार को समझ पाने में असमर्थ है हो रहे हैं अथवा समझना ही नहीं चाहते !?
जब हम जन्म लेते हैं तब एक संकल्प के साथ इस दुनिया में आते हैं "बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय " परंतु ना तो हम इसे पूरा करते हैं ना ही कोशिश , लेकिन प्रकृति ने जो कुदरत को वचन दिया उसे आज तक निभाती आ रही है । शायद मन में प्रश्न उठा होगा !कैसे ?
प्रकृति ने अब तक जीव धारियों को सिर्फ दिया है अपनी गोद से हर सुविधा संपन्नता को सौंपा है क्या आज तक बदले में कुछ मांगा ? प्रकृति कभी किसी से कुछ नहीं मांगती अपितु उसने तो सिर्फ और सिर्फ देना सीखा है
और हम उसके इतना देने के बाद भी उसके साथ क्या करते आए ! और क्या कर रहे हैं !! हम तो अब भी छीन रहे हैं जैसे सदैव छीनते आए हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि भरी पूरी प्रकृति को पूरी तरह से नष्ट करने पर तुले हैं आपका कोई प्लॉट या जगह खाली पड़ी रहती हो जिसका की उपयोग समय पड़ने पर ही आप करते हैं यदि वहां पर कोई आकर बैठ भी जाए तो आपकी भौंहें तन जाती हैं । लेकिन प्रकृति ने तो वह भी दिया -सौंपा अब जब प्रकृति को इसकी आवश्यकता पड़ेगी तो इस्तेमाल तो करेगी !
तात्पर्य है कि आज जो भी आपदाएं आ रही हैं उन सभी प्राकृतिक आपदाओं को आमंत्रित करने में हमारा ही हाथ है ना कि कुदरत का कहर या प्रकृति की आपदा , हमने तो आस्था को भी भौतिकता से जोड़ दिया है। जहां हमें योग से मेहनत से सूझबूझ से प्रकृति की शक्ति को मजबूत करना चाहिए वहां भी हमने अपनी सुविधाओं को ठूंस दिया , तीर्थों को तीर्थ ना रहने दिया उसे पिकनिक स्थल हनीमून प्लांट रिसोर्ट आदि ना जाने क्या-क्या बना दिया जबकि इन सबके लिए प्रकृति ने हमें और भी अन्य स्थल जो सौंदर्य से परिपूर्ण हैं दिए हैं तो आस्था के तीर्थ पर ऐसी अनैतिकता क्यों ? उदाहरणतः आज हर तरफ जल ही जल है और हमारी पृथ्वी भी एक बटा तीन भाग जल से परिपूर्ण हैं बावजूद पानी की किल्लत ! आखिर क्यों!?
क्योंकि हमने अपनी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ा कर नदियों को छोटा कर दिया है यह जानते हुए भी कि समुद्र को बांधा नहीं जा सकता उसकी सीमाओं का कोई पार नहीं है नदियों को हम रोक नहीं सकते वह तो बढ़ती घटती रहती हैं जब आवश्यकता पड़ती है अपनी जगह का उपयोग कर लेती है जब खाली छोड़कर जाती है तब भी आपको देकर ही जाती है। खादर कहलाने वाली अत्यंत उपजाऊ भूमि जिसका उपयोग आज से 80 साल पहले हम सब्जी अनाज दाल एवं मौसमी फल आदि की अच्छी पैदावार करके किया करते थे परंतु आज इसी खादर पर बड़े-बड़े प्लॉट काटे जा रहे हैं जिनमें ऊंची ऊंची इमारतें खड़ी होती जा रही हैं ।
जब तक हम नदियों के अत्यधिक तेज बहाव जिसे आज बाढ़ आपदा का नाम देते हैं उस बहाव से बहकर आए उपजाऊ मिट्टी से फसल पैदा करते थे तब दोबारा नदियों के पानी के अधिक बढ़ जाने से हानी अधिक नहीं हुआ करती थी परंतु आज हमने उन उपजाऊ मिट्टियों के एकत्रित होने की जगह यानी खादर पर ऊंची इमारतों के लिए उपयोग कर रहे हैं तो जब नदियों का पानी बढ़ेगा तो इमारतें तो ढहेंगी ही जान माल की हानि होगी ही फिर इसका ढिकरा एक दूसरे के सिर क्यों मढ़ना ।
वन , जल , नदियां केवल अपना स्थान मांगती है हमारा सुंदर आशियाना नहीं । नदियों के तटों वनस्थली पर कब्जा करने का परिणाम कुछ वर्षों में स्पष्ट दिखाई दे रहा है लेकिन फिर भी !?
प्रकृति से प्रकृति के सौंदर्य से छेड़छाड़ का दुष्परिणाम ही हमारे ऊपर कहर बनकर टूटता है हमने नदियों ही नहीं वनों तक को और तो और बेहिचक बागों से भी कह दिया है कि आप सीमित रहो। क्योंकि पहले जहां खूबसूरत बागों में प्यारे प्यारे छोटे बड़े पेड़ पौधे और गमले हुआ करते थे वहां हमने सारा भाग समेटकर सीमित कर दिया और स्वयं पसर गए पूरे बाग में और अब उन्हीं बागों को छोटे से गमले में समेटना क्या व्यंग पूर्ण नहीं लगता ! ऐसे में आपदा को रोकना या संभालना क्या संभव होगा? हम समझना नहीं चाहते की प्रकृति हमें बार-बार किसी न किसी रूप में चैता कर जाती है और हम हर बार उसे जानबूझकर छेड़ते जाते हैं । हां जब बारी आती है भुगतान की तो रोना रोकर दोष मढ़ देते हैं एक दूसरे पर और नाम धर देते हैं कि कुदरत इंसानों पर कहर ढा रही है । यदि यह कुदरत का कहर ही है तो यूं समझ लेना सही होगा कि कुदरत इंसानों पर तब तक कहर नहीं ढाती जब तक इंसान अपनी मर्यादाओं को नहीं लांघता मानव ने मर्यादा लांघी वह भी प्रकृति के विरुद्ध तब तो रोना कोसना और दोष मढ़ना हमारी सबसे बड़ी मूर्खता है।
हरे-भरे वन उनकी सुंदरता के बीच बस्ते तीर्थ नदियों के तट अन्य तीर्थ स्थल सब कुछ हम छीन रहे हैं व्यक्तिगत तौर पर या व्यावसायिक तौर पर अब ऐसे में प्रकृति नदियां अपनी ही जगह वापस लौटे तो बुराई ही क्या है । बीते कुछ सालों में और आज भी आई गई आपदाएं चाहे भूकंप, बाढ़ ,तूफान ,महामारी , प्रदूषण सब कुछ हमारी उंगली करने का ही नतीजा है। बावजूद इसके हम अब भी हर उस स्थल को घेरे जा रहे हैं जो स्वयं कुदरत द्वारा प्राप्त प्रकृति का है। और उनका बड़े ही सुंदर ढंग से प्रचार-प्रसार भी कर रहे हैं। की फलाना जगह पावन स्थान पुनीत धरती यह तट वह तट यह खुबियां वह सुविधाएं आदि आदि। और हम ही हैं जो यह जानते हुए भी कि जिस जगह यह सब हमें मिल रहा है वह तो हमारा है ही नहीं ! जिसकी सीमा है वह तो कभी भी आ धमकेगी तब क्या रह जाएगा !! अंत में कहने ( लिखने ) का तात्पर्य यह है की हम प्रकृति की असीम शक्ति को पहचानते हुए उसकी दी हुई छोटी-छोटी चेतावनी को समझकर यदि अपनी मर्यादाओं में रहे , नदियों को अविरल अपनी यथा स्थिति में बहने दे , वनों को हवा के झोंकों में गुनगुनाने दें, तीर्थों को पूजनीय और आस्था को आस्था ही रहने दें तो पृथ्वी पर किसी भी आपदाओं से काफी हद तक निजात पाया जा सकता है और साथ ही बचा सकते हैं जान व माल की कभी ना पूरी होने वाली क्षति को !।
संतोष शर्मा " शान "
हाथरस (उ. प्र .)
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