प्रकृति की शिक्‍त- दिनेश

धरती अम्बर नदियाँ सागर
वन उपवन जंगल पर्वत है विशाल
देखे जो देखे हो जाय निहाल
कल-कल बहती नदियाँ सारी
हिलोरें लेता मद मस्त सागर
मन मयूर नाच उठता है
जब टिप-टिप होती बारिश
घिर आती है घटाएं अम्बर पर
जब जंगल में हरियाली छाती है
चिड़िया चहकी कोयल बोली
खिल गए पलाश
सबको पता हो गया आगया मधुमास 
धानी चुनर ओढ़ के धरती
सज गई है प्रकृति सुंदरी
विरहन के मन में जगी
फिर से मिलन की आस
भौरों ने जब छेड़ा सरगम
कलियों ने घूँघट हटाया
शरमा गई तितली फूलों से कैसी हया
अमराई से सुगंध निकल पड़ी
हवा से कर ली गलबहियाँ
मस्त-मस्त हो गया फागुन
जब महुए ने मादक रस घोला
बहका-बहका मौसम
"दीनेश"सबका मन है बोला
ऐसी सुंदर प्रकृति से जो 
इतना सबकुछ देती है 
फिर क्यों मानव इससे 
छेड़छाड़ करता है
काटकर जंगल उपवन को
क्यों उसे विधवा सा बनाता है
क्यों करता है उसका चीर हरण
जब मिलता है उसी आँचल में शरण
प्रकृति में शक्ति बहुत है
ये मानव तू अब भी सम्भल
आज का दिन चला गया
बचा लो अपना कल
प्रकृति जब अपनी शक्ति दिखाएगी
तब ये मानव तू जार-जार रोयेगा
अपनी करनी पर तू बार-बार पछतायेगा
माँ की माँ प्रकृति माँ
इसकी शक्ति को पहचान
ये मानव तू मत बन शैतान
बनकर रह तू सच्चा इन्सान
"दीनेश"बनकर रह तू सच्चा इन्सान
दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" कलकत्ता


 



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