पुस्‍तकें होती है सच्‍ची मित्र-वदंना

 विश्व पुस्तक दिवस पर विशेष


वाल्मीकि ॠणि ने संभोग में रत क्रौंच पक्षी पर तीर चलाने वाले निषाद पर कुपित होकर उसे श्राप दिया था -


मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः साः ।
यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधि काम मोहितम् ।।


और इस श्लोक ने रामायण की रचना कर दी । यह श्लोक संस्कृत साहित्य प्रथम श्लोक था । इसके बाद कितने ही ग्रंथ और उपनिषद रचे गए, वेद-पुराणों की रचना हुई । यदि वे पुस्तकाकार में न होतीं तो , न तो हम राम को जान पाते , न कृष्ण को, न गीता का संदेश हम तक पहुंचता, न महाभारत के युद्ध भीषणता, न आयुर्वेद और चिकित्सा शास्त्र  का ज्ञान होता न वनौषधियों का , न वास्तु शास्त्र का ज्ञान होता ,न ज्योतिष का , न हमें गणितीय ज्ञान प्राप्त होता न छंद शास्त्र का और न ही  संविधान के रूप में प्राप्त पुस्तक द्वारा हम नियम कानून के साथ ही अपने अधिकारों और कर्तव्यों को जान पाते ।पुस्तकें ही हैं जो इतिहास भूगोल से लेकर राजनीति और अर्थनीति ,गणित से लेकर अभियांत्रिकी , पर्यावरण से लेकर खगोल शास्त्र और विज्ञान से लेकर चिकित्सा तक की जानकारी उपलब्ध कराती आई हैं  । वैदिक काल से लेकर अब तक कितने  ही ग्रंथ और पुस्तकों की रचना की जा चुकी है।  भारत की विभिन्न भाषाओं में विभिन्न विषयों से संबंधित पुस्तकें उपलब्ध है ।


पुस्तकें एक मित्र भाँति मनोरंजन भी करती है , ज्ञान भी देतीं हैं, मार्गदर्शन भी देतीं हैं और बुरे समय में साथ भी निभाती हैं । एकाकीपन का इससे बड़ा उपचार कोई नहीं ।हमारी पीढ़ी पुस्तकें पढ़ कर ही बड़ी हुई है । नंदन , चंपक, चंदमामा का उल्लेख आते ही, हम बचपन में कहीं खो जाते हैं। उन दिनों बस्तों में कम  किताबें हुआ करती थीं ।उन कम किताबों को पढ़ कर भी ज्ञान में कुछ कमी नहीं थी । हमारी पीढ़ी ने सार गर्भित पुस्तकें पढ़ कर उच्च पदों को प्राप्त किया ।आज बस्तों में किताबें जरूर बढ़ी हैं पर उनके प्रति रुचि घट गई है।  टीवी मोबाइल और कंप्यूटर ने किताबों का महत्व बहुत कम कर दिया है । न केवल किताबें बल्कि काॅपी कलम भी हाथ से छूट गईं हैं। कल्पना शीलता नवीनता व मौलिकता का स्थान नकल ने ले लिया है।   गूगल पर आसानी से किताबें  उपलब्ध हैं । यह इस युग की खासियत है, किन्तु अपने पुस्तकालय में संचित किताबों पर स्नेह से हाथ फेरना यदाकदा उन्हें पढ़ना एक अलग ही अनुभूति दे जाता है। ऐसा नहीं कि आजकल पुस्तकों की रचना नहीं हो रही ; बल्कि पहले से कहीं ज्यादा हो रही है।  लेखकों और पुस्तकों की बाढ़-सी आ गई है, किन्तु  पढ़ने वालों का टोटा है ।  लेखक महंगी कीमत में  पुस्तकें प्रकाशित तो करवा लेते हैं , पर पाठक के अभाव में अपनी पुस्तकें किसी को दान करते हुए तस्वीर खिंचवा लेने में ही संतुष्टि पा जाते हैं । 


पुस्तकों के प्रति लोगों में रुचि जगाना एक चुनौती भरा काम तो है ही ; पर कहते हैं, कि आशा पर संसार टिका है । आज यदि सृजन नहीं होगा, पुस्तकों की रचना नहीं होंगी, तो एक शून्य-सा आ जाएगा। आने वाली पीढ़ी आज की परिस्थितियों को कैसे जान पाएगी ? इसलिए पुस्तकें पढ़े, ज्ञानार्जन करें, उच्च कोटि का सृजन करें तथा लोगों को पुस्तकें पढ़ने के लिये प्रेरित भी करें । 


- वंदना दुबे 
  धार , मध्य प्रदेश


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