सांसों से गुफ्तगू - दर्शन पुरोहित 

 मैं मुझ में क्या हूं
 यह मैंने अपनी सांसो से पूछा 
 सांसे थोड़ी ठहरी रुकी 
 मेरी आंखों में झांकी
 फिर हल्के से मुस्काई
 अंगड़ाई लेते पास आई
 छूने भर की मात्र दूरी लिए 
 मुझे टकटकी बांधे निहारी
 उसकी उष्मा मुझ से टकराई 
रोम रोम में मानो सिहरन भर आई
एक ही क्षण में एहसास करा गई 


' कुछ नहीं मैं बिन उसके'
 बिन बोले ही समझा गई
 धीमे से हाथ थामे बोली
 तेरी आंखों की ज्योति
 तन रूपी दिए की बाती
सांसो में महकती पाती 
सब तो मैं ही हूं 
पर 'मैं 'तुम बिन अधूरी
 तुम मुझ बिन अशरीरी 
 तभी तो 'तुम 'मुझसे 
'मैं' तुमसे होती हूं पूरी।


प्रोफेसर दर्शन पुरोहित 




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