पुस्तक दिवस विशेष
तुम क्यों गुमसुम सी हो,
अनकही दास्तां से भरी सी हो।
भले अंधेरे में चमक देती हो ,
पर आजकल पलटती नहीं हो।
तुम ज्ञान कि धारा हो ,
महकती कलियों का संसार हो।
सच तुम मेरी सहारा हो,
मस्किलों में राह दिखाने की बहार हो।
तुम्हे खोलती हूं गहरा जाती हूं,
समुंदर में जैसे गोता लगाती हूं।
बह जाती हूं और डूब जाती हूं,
अपने अश्कों के बूंद टपकाती हूं।
ज्ञान दर्पण की मूल विरासत,
अक्षर मोती से सुसज्जित ।
जमाई हो पैठ सदियों से,
वेद,गीता के संदेशों से ।
मित्रा शर्मा
महू (इंदौर)
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