एक दिन आपका कालम के तहत प्रकाशित
तुम्हे तो पता हैं न ऐ सागिर्द
मेरा गुरुर कौन हैं
मेरे इस खिलते हुए गुरूर को धूमिल न होने दे
बहुत ही शान से तुम्हे निहारा
बहुत ही शान से सबसे मिलाया
मेरे इस गुरुर को धूमिल न होने दे
तुम्हारा व्यक्तित्व अपने आप से भटक गया
तुम्हारा अस्तित्व क्या से क्या हो गया
ये मै नहीं मेरी अन्तरात्मा बोल गया
मेरी इस गुरुर को धूमिल न होने दे
सभी कहते हैं की कवि की कल्पना होती हैं कविता
पर मै कहती हूँ जज्बातों की एहसास होती हैं कविता
कल तक का मेरा दहाड़ता हुआ शेर
आज किसी पिजरे का शिकार हो गया
मै कैसे कहु ऐ सागिर्द
मेरा पहले वाला गुरुर लौटा दो
मैने बड़े शान से तुझे संजो कर संभला
मैने बड़े ही अदब(अधिकार)से निहारा
तेरी हर एक चाल (रॉब) को सराहा
ये सागिर्द मेरे इस गुरुर को और न मुरझाओ
बहुत हो चुका अब लौट आओ
मेरे इस गुरुर को पूर्णिमा का चाँद ही रहने दो
मेरे इस गुरुर को धूमिल न होने दो
अनुभा वर्मा (पटना)
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