नूतन के जीवन का बीसवाँ बसन्त आने ही वाला था कि उससे पहले ही उसके हाथ पीले कर दिए गए। नौ महीने ही बीते थे कि पुत्र रत्न की किलकारियों से छोटे से घर का कोना -कोना गूँज उठा।चञ्चल चितवन रमणी के सौंदर्य ने तो गोद में पुत्र के आते ही जैसे सावन की छटा ही बिखेर दी। ऐसा मनोहर यौवन जिसके आगे चाँदनी भी शर्मा जाय।बोल इतने मधुर कि सुनने वाला भी मधुरस में डूबता चला जाए।ऐसी सुन्दर भार्या को पाने वाला पति तो स्वयं को भाग्यशाली मानेगा ही। अजय तीन साल का हुआ ही था कि एक सुंदर सी परी ने जन्म लेकर परिवार को भरापूरा कर दिया।सुखपूर्वक दिन गुजर ही रहे थे कि न जाने किसकी बुरी नज़र लग गई और रमेश को गले के कैंसर ने जकड़ लिया।
दोनों बच्चों की जिम्मेदारी नूतन के नाजुक कन्धों पर डाल रमेश ने सदा के लिए आँखें मूँद दी। भरी जवानी में ही ज़िन्दगी ऐसा कहर ढायेगी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। दोनों बच्चों को छाती से लगा उनमें ही सच्चा सुख ढूँढने की कोशिश की में जुट गई। दोनों बच्चे पिता का सुख भी माँ के आँचल तले ही समेट कर स्वयं को तृप्त करने लगे,लेकिन भाग्य को तो कुछ और ही मंजूर था। नूतन के रूप यौवन का पुजारी महेंद्र बहुत पहले से ही उसे पसन्द करता था।शायद इसीलिए उसने अभी तक शादी भी नहीं की थी।
नूतन को ऐसी अवस्था में देखकर बार-बार महेन्द्र उसकी मदद के लिए तत्पर रहने लगा। धीरे- धीरे उसने बच्चों के दिलों में भी अपने लिए जगह बना ली।एक दिन दोनों ने अपने-अपने परिवारजनों के विरोध करने के बावजूद शादी कर ली।एक बार फिर नूतन की माँग सिन्दूर से दमकने लगी और दोनों ही खुशहाल जीवन के सपने देखने में ऐसे मशगूल हुए कि यह भी होश न रहा कि इन्सान को पैर अपनी चादर के अंदर ही पसारने चाहिए। कम समय और कम परिश्रम से ही अमीर बनने की ऐसी धुन सवार हुई कि कई जगहों से लोन ले लिया गया। पुरुष पर अन्धा प्यार लुटाने वाली पढ़ी- लिखी होते हुए भी उस तरुणी ने हर बार बिना प्रश्न किए लोन के कागजातों पर हस्ताक्षर कर दिए। यह भी नहीं देखा कि लोन के उन कागज़ातों पर अकेले उसी का नाम है अर्थात जब चुकाने की बारी आयेगी तो हर कोई उसे ही खोजेगा क्योंकि महेंद्र का तो उसमें कोई हस्ताक्षर है ही नहीं । क्या सचमुच नारी को हर पल उस बेल की तरह ही होना चाहिए जो आँखें मूँद पेड़ से लिपट कर स्वयं का सारा भार उसे सौंप स्वयं निश्चिंत हो जाती है। महेंद्र के सुदृढ़ कन्धों पर सिर रखने की आदत हो गई हो गई शायद!
समय भी कैसे -कैसे खेल रचता रहता है। इधर ,महेन्द्र के घर वालों ने दबाव डाल कर उसकी शादी कर ली जिसकी ख़बर नूतन को तब मिली जब बहुत देर हो चुकी थी। इस ख़बर ने उसे इतना आहत कर डाला कि वह ग़लत और सही में फ़र्क करना भी भूल गई और बजाय कि अपने दोनों बच्चों को अपनेजीने का सहारा बनाने के किसी और पुरुष के कंधे का सहारा ढूँढने लगी।
इधर जब महेंद्र को इसकी भनक लगी तो बजाय अपनी ग़लती को स्वीकारने के नूतन के ही चरित्र पर उँगली उठाने लगा कि उसे तो माँ की ख़ुशी के लिए मजबूरी में शादी करनी पड़ी लेकिन वह क्यों उसे धोखा दे रही है? अब महेन्द्र को मौका अच्छा मिल गया दूसरे पर उँगली उठाने और जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेने का जो उसने नूतन से शादी करते समय स्वीकार की थीं कि दोनों बच्चों की जिम्मेदारी उसकी है। ओह!इतना नाज़ुक निकला यह रिश्ता जो हल्के से हवा के झोंके के साथ ही बिखर गया।अब नूतन बार- बार स्वयं को कोस रही है .…आख़िर वह इतनी कमज़ोर ,इतनी नासमझ कैसे हो सकती है?क्या वह क्षणिक सुख भोग केभँवर में फँस गई थी?क्या बिन पुरुष की सहानुभूति के वह स्वयं को अशक्त महसूस कर रही थी?
कर्ज़दार तकाज़ा कर जाते हैं जल्दी कर्ज़ चुकाने का। नूतन न मायके वालों से मदद माँग सकती है और न ही महेंद्र के माता पिता से क्योंकि वे तो शुरू से ही उसके और महेंद्र के रिश्ते के ख़िलाफ़ थे। महेन्द्र ने तो उससे बात करना भी बंद कर दिया है। फोन भी नहीं उठाता... क्या ग़लती अकेले उसी ने की है....और महेंद्र ने शादी कर ली ...उसका क्या? ओह!ऐसा विश्वासघात !
नारी कब पूर्णरूपेण शशक्त बन पाएगी,....कब भटकना छोड़ेगी,...क्या जीने के लिए पुरुष का कन्धा होना ज़रूरी है.......कब समझ पाएगी स्वयं को..?
माधुरी भट्ट पटना
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