हम क्या थे और क्या हो गए,
देखा जो आईना तो डर से गए।
लगता ये भी हो गया फ़रेबी,
सच अब नहीं दिखाता ये भी।
लगता है ज़माने का हो गया असर,
भरोसा नहीं रहा अब तो आइने पर।
सच कहने से लगता ये भी गया डर,
गिरगिटी अंदाज़ में नहीं कोई कसर।
एक बार ख़याल आया कहीं,
हम ही तो नहीं गए बदल।
एक शक़्ल पर चढ़ाकर दूसरी,
हमने ही बदली है अपनी शकल।
असली पहचान खो पाई नई,
मुखौटों के नीचे वो दब सी गई।
प्याज़ के छिलकों सी कई परतें,
हर रिश्ते के पीछे यहाँ कुछ शर्तें।
एक ही नाम के हैं चेहरे कई,
फिर, ...ग़लती आईने की नहीं।
अपने ही फ़रेबी रूप, से छले से गए,
देखा जो आईना, तो डर से गए।
डॉ नीलू समीर
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