क्षेत्रीय भाषा में कविता
बड़ी दिन से का जाने काहे
पीठ में बड़ी दरद रहे...!
मने में सोचनी तनी आराम क लेब त निमन
हो जाइ...!
डाकडर किहे का जाइ बेमतलबे
कई गो बेमारी बढ़ा दिहन..!
कब हू बइठत रही त कबो ओठंघत रही बाकी,
दरद में आराम ना मिलल अउर बढ़ी गईल..!
तब सोचनी डाकडर से देखा ली,
डाकडर कहले...ओह...!
अब अउर मत झुक, अब आउर अधिक झुके के
गुंजाइश नइखे लाउकत..!
झुकते-झुकते तहरा रीढ़ के हड्डी में
खालीपन( गैप) आ गइल बा..!
इ सुनते हमरा हँसी आ रोआई
एके साथे आ गइल..,
जिनीगी में पहीला बार, केहु के के मुँह से
सुननि ई सबद "मत झुकऽ...."
बचपन से त हम घर के बड़, बूढ़,माई,
बाबूजी आ समाज से ईहे सुनत आ गईनि
कि "झुक के रहऽ...."
औरत के
झुकल रहला से बनल रहेला गृहस्थी..
ओकरे झुकल रहला से
बनल रहेला संबंध, बनल रहेला
प्रेम..प्यार,घर परिवार...
अब त झुकत गईनी, झुकते रही, झुकल रही
भुला गईनी कि हमरा मे कतहूँ
रीढो बा...
आ आजू केहु कहता कि... "झुकीह मत.."
अब तऽ परेशान होके सोचे
लगनि कि का
लगातार झुकला से
रीढ़ के हड्डी अपन जगह से
घसक जाला ?
ओकरा में कहीं
खालीपन आ जाला ?
सोचत रही ...
बचपन से आज तक
का का घसक गइल
उनका जीवन से
कहाँ कहाँ खालीपन आ गइल
उनकर अस्तित्व में
कहाँ कहाँ खालीपन आइल
उनका देह के बाहर भीतर
बिना उनका समझले बुझले.
उनका अल्हड़पन आ सपना
कहाँ घसक गइल,
उनकर मन आ उनकर चाहत,
कताना खाली हो गइल
उनकर इच्छा, अनिच्छा में
कतना खालीपन आ गइल
का साँचहूँ औरतन के रीढ़ के हड्डी
बनवले बाडन भगवान...?
ई तऽ समझ मे आवते नइखे ....
घर के मंदिर बनावे वाली के खातिर...
बिना रीढ़ के बनल एगो गृहणी ये त होले,
जेकर माई कहली की..
बेटी चुप रह ससुरा मे जवन करे के होई करीह...
आ ससुरा में कहल जाला बाबूजी के घरे करीह,,,
तब से चुप्पी साध ले ली बुझीला उनकर. कवनो घर ना होला..
एहि से ऊ आपन सब खालीपन आ कुली दरद पी गईली...
बाकी अब ई खालीपन के दरद के कईसे पियस...???
~ इंदु उपाध्याय, पटना
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