गुलाब-इंदू

किस्से कितने, कितने ग़म है
गुलाब की मुस्कान में न जाने ।
झुमता है रोज वह सनसनाती
हवाओं में भी ,
उसकी हर परेशानी जानी मैनें
हर बदलते  मौसम में ।
सबके काम आता है वो ,हर जगह
चढ़ाया जाता है ,.वो.! 
कहाँ  महफूज़   है वो,फिर भी मुस्काता है
औरों को 


लिखूँगी किसी रोज़, दास्तान मैं भी अपनी...!
और तब...   . तुझपे इक ग़ज़ल भी,लिखूँगी
किसी रोज !!!


लिखूँगी तू कैसे रोज़ नये ज़ख्म दे जाती
है,एक के भरने से पहले...!
ग़र गुलों का ज़िक्र आया तो,तुझे काँटोंवाला
गुलाब लिखूँगी !!!


बे-इन्तहा है तू... गर बात इश्क़ की हुई तो लिखूँगी...
अज़ल है तू गर ज़िक्र वक़्त की हुई तो ये लिखूँगी !!!


मासूम-सी दिखती है पर छीन लेती है, नींद और
 चैन लिखूँगी..!
तब मैं अपनी बेचैन करवटों की, नक़ल भी लिखूँगी ...!!!


हाँ मानती हूँ कि ज़रा मुश्किल है, तुझे लफ़्ज़ों में
 बयां करूँ तो कैसे करूँ...
.फिर भी यकीन कर ले तू ,तुझे मैंअपनी मुकम्मल सी ही
धूप-छाँव लिखूँगी..!!


ये जानती हूँ मैं, कि तुझे और मुझे बहुत नफरत है
झूठ से...!
इसलिए तू इत्मिनान रख जो भी लिखूँगी, सब
असल ही लिखूँगी !!!


ऐ प्यारे गुलाब .
इंदु उपाध्याय पटना



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