श्री लल्लनदास झम्मनप्रसाद श्रीधर पांडे (शान) जी जब शान से विद्यालय में शिक्षण हेतु पधारे तो उन्हें सातवीं कक्षा को पढाने का जिम्मा सौंपा गया | कक्षा में पहुँचने पर जब उन्होंने अपने नाम का परिचय दिया तो सभी विद्यार्थी दरवाजे की ओर ताकने लगे | स्वयं को अपमानित महसूस करते तमतमाते हुए उन्होंने बच्चों से पूछा, "दरवाजे पर क्या है?
एक विद्यार्थी ने मासूमियत से जवाब दिया," मास्टर जी हम तो उन्हें देख रहे थे जिनके नाम आपने लिए और वो आए ही नहीं | जैसे ही उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई तो समझ न आने की वजह से बच्चों ने शरारतें आरम्भ कर दी | अध्यापक महोदय जैसे ही समझ पाते कि हुआ क्या है तभी एक बच्चा तपाक से बोल पड़ा," मास्टर जी हिन्दी में बोलिए | ( दरअसल वो हिंदी की विशुद्ध शब्दावली का प्रयोग कर रहे थे जो बच्चों की समझ से परे थी)
सामान्य जान पहचान के बाद उन्होंने बच्चों को कहा, "प्रिय विद्यार्थियों ! कल प्रथम पाठ के अध्ययन से पूर्व मेरी आपसे अपेक्षा है कि आप घर जाकर इसका अवलोकन करें तदोपरान्त मनन-चिन्तन करते हुए कठिन पंक्तियों को चिन्हित कर लें ताकि आपकी समस्त जिज्ञासा की तृप्ति हो सके"| बच्चे पुनः बगले झांकने लगे | मरते क्या न करते चुपचाप हाँ में सिर हिला दिया |
मास्टर जी के जाते ही एक बच्चे ने दूसरे बच्चे से कहा, "चाहे कुछ भी हो जाए, मैं तो कभी हिंदी का अध्यापक नहीं बनूंगा"| यह सुनकर सभी बच्चे हँसने लगे |
अगले दिन मास्टर जी ने पहला पाठ जो कि एक कविता था उसे पढ़ाना शुरू किया |वे भावावेश में इतने जोश से पढ़ाने लगे कि साथ वाली कक्षा के अध्यापक भी अपनी कक्षा छोड़ कर ये देखने आ गए कि कहीं उन्हें कुछ हो तो नहीं गया | प्रसंग, सरलार्थ और भावार्थ में एक ही बात को इतना उलझा दिया कि कौन सी पंक्ति सरलार्थ में लिखनी है और कौन सी भावार्थ में बेचारे बच्चे जान ही न पाए | कुछ बच्चे तो ऐसे थे जो ये सोचकर कि मास्टर जी लोरी सुना रहे हैं वहीं बैठे -बैठे सो गए | पर मास्टर जी तो अपनी धुन में थे, उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी कवि को बहुत दिनों बाद मंच पर काव्य-पाठ करने का मौका मिला हो | क्या फर्क पड़ता है कोई सुने या ना सुने? उन्हें तो बस सुनाना है और सुनाकर ही दम लेंगे |
बच्चे अक्सर बातें करते कि सभी अध्यापक छुट्टी कर लेते हैं लेकिन ये नहीं करते... आ जाते हैं बस हमें पकाने | अब भला एक ही बात को बार-बार कौन सुन सकता है?
कुछ माह पश्चात बच्चों पर उनका ऐसा रंग चढ़ा कि बच्चे तुकबंदी में बात करने लगे | सवाल-जवाब भी तुकबंदी में होने लगे क्योंकि अब मास्टर जी को पता लग गया था कि बच्चों को पढ़ाने के लिये पहले उनके स्तर पर आना होगा न कि सीधे ही अपनी बौद्धिकता का परिचय देना होगा |
---©किरण बाला
(चण्डीगढ़ )
0 टिप्पणियाँ