वैसे तो आजतक भगवान की कृपा से मुझे कभी खुद खाना बनाने की नौबत नहीं आयी थी. लेकिन मेरे जीवन में एक मौका ऐसा आया था जब मुझे रसोई में प्रवेश लेना पड़ा था. हमारी MBA पूरी होने के बाद मेरी और मेरे मित्र की कैंपस प्लेसमेंट लुधियाना में एक टेलीकॉम कम्पनी में हुई थी. हमें सेल्स की जॉब के लिए चुना गया था.हम बस्सी नर्सिंग होम के पास किराये के कमरे में रहते थे.एक रात बहुत तेज़ बारिश हो रही थी और सेल्स कॉल करते-करते हमें बहुत देर हो गयी थी.और जब तक हम अपने कमरे पर पहुँचे ढ़ाबे बंद हो चुके थे.तेज़ बारिश की वजय से मेरे रूममेट की तबियत भी बहुत खराब हो गयी थी.भूख से हम दोनों की ही जान निकली जा रही थी. आमतौर पर हम खाना बाहर ही खाते थे लेकिन हमारे कमरे में स्टोव, मसाले और मिट्टी तेल का प्रबंध था.संजय की हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी. मैंने फ़ैसला किया कि आज मैं खुद ही खाना बनाकर देखता हूँ. अगर अच्छा नहीं भी बनेगा तो हम दोनों को ही तो खाना है, कोई किसी से कुछ नहीं कहेगा.हमारे मकान मालिक का घर हमारे कमरे से थोड़ी दूर पड़ता था.हमारे कमरे में स्टोव और मिट्टी तेल, मसाले तो थे लेकिन बाकी कुछ खाने का ग्रोसरी का कोई सामान नहीं था क्योंकि हमें कभी इनकी जरुरत नहीं पडती थी . मैं भीगता हुआ मकान मालिक के घर गया और उनसे थोड़े चावल -दाल (बिना पके )मांग कर ले आया. मैंने पहली बार बड़े जतन(मेरे लिए जतन ही था ) से अपने और मित्र के लिए दाल-चावल बनाये और मैंने बहुत शिद्दत से बनाये थे तो अच्छे भी बन गए. अपना वो पहला रसोई अनुभव मुझे आज भी याद है.उसके बाद भी प्रभू-कृपा से कभी खुद खाना बनाने की जरुरत नहीं पड़ी।
द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता " 713/16, झज्जर (हरियाणा )
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