काव्यकृति अबकी बार मधुमास मौन है! प्रकृति-सहचर जीवन-राग का मंगल आह्वान है-डॉ रविन्‍द्र उपाध्‍याय

 


प्रकृति-सहचर जीवन-राग का मंगल आह्वान है "अबकी बार मधुमास मौन है "   किताब समीक्षा

कवि-गीतकार पंकज कुमार वसन्त की काव्यकृति "अबकी बार मधुमास मौन है" ' में  कवि की गहरी संवेदनशीलता , समय-सजगता , चिन्तन-प्रौढ़ि और सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की दीप्ति ध्यान आकृष्ट करती है। शीर्षक की अर्थ- अभिप्राय-व्याप्ति समूचे संग्रह में द्रष्टव्य है। कवि वसन्त को मधुमास का मौन गहरे व्यथित करता है। वह इस पीड़क मौन के कारणों , कारकों की शिद्दत से पड़ताल करता है और मौन-मोचन के सूत्र भी ढूँढता है। ध्यातव्य है कि चमन ,वन ,मन और आम जन-जीवन प्रायः हर जगह यह चुभनेवाला मधुमासी मौन कमोबेश मौज़ूद है।   चमन ,वन की वासन्ती चुप्पी का मुख्य कारण औद्योगीकरण की तेज गति और प्रकृति के प्रति विज्ञान का अतिचार है। वस्तुतः , प्रकृति से मनुष्य का पुरातन प्रीतिल सम्बन्ध रहा है।  सुख-दुख में वह मनुष्य की सच्ची सखी रही है।  मनुष्य के लिए प्रेम की पाठशाला , शान्ति का सदन और मुक्ति की प्रेरणा-स्थली रही है प्रकृति ।   कविवर गोपाल सिंह नेपाली लिखते हैं-
" जीवन में क्षण-क्षण कोलाहल,ज्यों सुख त्यों दुख,सुख-दुख समान।/ आती संध्या जाता विहान,जाती संध्या आता विहान।/इसलिए जगत् में दो ही तो कुछ शान्ति कभी देनेवाले, /है एक प्रकृति की मृदुल गोद , दूसरा प्रेम का मधुर गान।"
             पर , आधुनिक विज्ञान ने प्रकृति को जैसे प्रतिद्वन्द्वी मान लिया है । प्राकृतिक संसाधनों का निर्मम दोहन और उसके हर रहस्य को अनावृत करने के विज्ञान के अहंवादी व्यवहार ने प्रकृति को बहुत  पीड़ित ,क्षुब्ध किया है।परिणामतः , पर्यावरण- प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन का भीषण संकट आज पूरे विश्व को चिन्तित , त्रस्त किये है। ऋतुचक्र के स्वभाव में बदलाव के लक्षण चिन्ताजनक हैं। धूप की प्रचंडता बढ़ रही है, छाँह छोटी  होती जा रही है। जल का स्रोत नीचे की ओर भागता जा रहा है। हवा-पानी प्रदूषित हैं , पहाड़ गंजे हो रहे हैं ,नदिया दुबली हो रही हैं। मोबाइल के रिंगटोन के नैरन्तर्य में कलरव जैसे गुम होता जा रहा है!  वैश्विक संकट के इस परिदृश्य को कवि वसन्त ने पूरी निष्ठा और संवेदना के साथ अंकित किया है। निम्नलिखित काव्यांश अवलोकनीय हैं-
"सूखती धरती- सूखता अंबर 
सूख रहा मृदु शज़र नगर 
सूख रहा बादल का आँचल,
ठहरा-ठहरा-सा पतझर।
अमृत की बूँदें सहमी-सी,
सहमा-सहमा क्षीर-सागर।
जीवन लहर बहानेवाली,
सरिता सहमी घबरा कर ।"
××                   ××
"जंगल-जंगल शहर बसाये,
खोद पहाड़ों के कोटर।
शठी भोग के उन्मादों में,
लूट प्रकृति भूख मुखर।
दाता बन सहती प्रकृति,
लूट रहे जन उसका हर्ष।
सुस्त पवन है बन्द वातायन,
जबरन जीवन का उत्कर्ष।"


आज मनुष्य के मन का मधुमास भी गुमसुम प्रतीत होता है।  पूँजीवादी बाज़ार और भोगमूलक पश्चिमी संस्कृति का अविचारित अनुकरण इसकी मुख्य वज़हें लगती हैं।  बाज़ार सिर्फ़ वस्तु-मूल्य को महत्त्व देता है, वहाँ महनीय जीवन-मूल्यों के लिए अवकाश कहाँ ? भोगवादी पश्चिमी जीवन-शैली की संगति भारतीय त्यागमूलक भोग( ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ') की पद्धति से कहाँ बैठती है?   भौतिकता सुख के साधन तो उपलब्ध कराती है लेकिन, सुख के सार अर्थात् शान्ति की क़ीमत पर। रजत-स्वर्ण के पलंग की उपादेयता ही क्या ,जब उससे नींद की भारी अनबन हो! हमारे मन का मधुमास तभी गुनगुनायेगा-गायेगा , जब हम अपनी संस्कृति और संस्कारों से सम्बद्ध रहेंगे। कवि-कथन है-


"मानव कहता उत्कर्ष काल है,
ये ऐशो-आराम का जीवन।
कहाँ ज़रूरत कोकिल-स्वर का,
क्या मतलब मधुकंठी गायन ।"
   ××                  ××


"अस्ताचल का खोल झरोखा,
झाँक रहे हम मधु- प्रहर 
पश्चिम की धुन की थिरकन में ,
भूल गये हैं हम पूरब ।"
      ××                    ××


"शठी भाव-हठी मानव-मन
स्वप्न जीत जगत का।
 नयन मस्त औ' उदर तृप्ति की 
चाहत में मद-रत-सा।"
               आम जन-जीवन का मधुमास तभी मुखरित होगा,जब अभावों का पतझर अपना रास्ता नापेगा कोरे आश्वासनों , झूठे वायदों तथा जाति-धर्म के नाम पर पलने-चलने वाली कर्तव्य-कृपण राजनीति के कारण ही बहुजन के जीवन में स्वतंत्रता के इतने दशकों बाद भी समत्व का गुंजरित मधुमास प्रतीक्षित ही है! कवि वसन्त लिखते हैं-
" कोई चाँद चुरा कर ले गये,
रोटी के टुकड़े दे कर।
स्वप्न सजाये उर में कोई,
सूरज को चादर ढँक कर।"
     ××                         ××
" तब चिल्लाता है नर जग में,
जब वह भूखा होता है।
शासक जब छल करता उससे
रूखा-सूखा होता है।"


' अबकी बार मधुमास मौन है ' के रचयिता का प्रकृति-राग जीवन-राग से अभिन्न है।  प्रकृति मनुष्य-जीवन का आधार है। अपराजिता प्रकृति के प्रति कृतज्ञता-भाव रखकर ही मानव-जीवन उन्नति का शिखर-स्पर्श कर सकता है। प्रकृति ने तो स्वभाववश अपना अक्षय कोष खोल रखा है। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में-
  "सन्त बिटप सरिता गिरि धरनी ।
   परहित हेतु सबन्ह कै करनी।।"


कवि वसन्त मधुमास के मौन को अपने समय के सार्थक और ज़रूरी सवाल के रूप में पूरी संवेदना और संलग्नता के साथ प्रस्तुत करते हैं। भावात्मकता और वैचारिकता के सुष्ठु समन्वय से कथ्य प्रभावी बन पड़ा है किन्तु , भाव-प्रवाह के संभाल में शिल्प की अनुस्यूति कहीं-कहीं शिथिल लगती है तथापि अपने समय की विसंगतियों और प्रतिकूलताओं के बीच अभीप्सित के प्रति कवि का आशापूर्ण स्वर बहुत आकर्षक है।
ये पंक्तियाँ देखिए-
" होगा तमस विवश उस दिन,
सूरज नव-नव गात गढ़ेगा
तोड़ धुंध की परत प्रकाश ले ,
नभ में हो उदात्त बढ़ेगा।
स्वीकृत होगा तेरा आमंत्रण,
अभी कलुष में नभ-वितान है।"


कवि वसन्त जी को बधाई और शुभकामनाएँ!


- प्राचार्य( से•नि•),विश्वविद्यालय हिन्दी-विभाग , बी• आर• ए• बिहार विश्वविद्यालय , 
  मुजफ्फरपुर।



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