हरि गीतिका करुण रस एक दिन आपका में
घर से निकाला है मुझे, बिन दोष के प्रभु राम ने,
कितनी परीक्षा दूं कहो, लिख क्या दिया विधि वाम ने।
पाई निशानी प्रेम की, अब चाह ना संसार की,
ममता मिली प्रिय खो गए, दासी बनी मैं द्वार की।
निरधार बेबस को यहाँ आता न कोई थामने....!
कितनी परीक्षा दूं कहो...!
हे मात मेरी लो मुझे, निज अंक में धारण करो,
कर्तव्य पथ पर हैं प्रभो, कैसे कहूँ मुझ को वरो।
अँधकार है चारों तरफ, मग है नहीँअब सामने...!
कितनी परीक्षा दूं कहो....!
सुधियाँ जलाएं अब मुझे, जागी विगत की कोर है,
जब पीर बढ़ जाती विपुल, मिलता नहीं कुछ छोर है।
मुझ को मिले सुत दो सुखद, वर दे दिया अब शाम ने...!
कितनी परीक्षा दूं कहो, लिख क्या दिया विधि वाम ने।
डॉ प्रिया सूफ़ी होशियारपुर पंजाब
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