माँ-इंदू

ग्रीष्मावकाश होते ही रचना का मन माँ के पास जाने को उतावला हो गया । वैसे जाती तो हर हफ्ते थी। सोमवार से शनिवार स्कूल करती और रविवार को सुबह की ट्रेन से दो घंटे में माँ के पास पहुँच जाती किन्तु शाम को वापस आना पड़ता, स्कूल के कारण और नौकरी भी छोड़ नहीं सकती थी।
न जाने क्यों रचना कॉलेज के दिनों मे पहुँच गई, वो जब भी कॉलेज के लिए तैयार होती सोचती क्लास के लिए देर हो रही हूँ। जल्दी जाऊँ तो पीछे से भाभी की आवाज़ और सामने माँ कुछ खा के जाओ, उफ़ देर हो रही है, वो माँ को देखती,  एक रोटी उठाकर भुजिया डाल, रोल बना निकल जाती, नहीं तो माँ दिनभर सुनाती रहेगी, हद है ये लड़की, भागते-भागते खाएगी, नहीं तो खड़े खड़े, न जाने क्या होगा इस लड़की का । कोई भी सामान या खाने की चीज़ आती जब तक रचना नहीं छुएगी तब-तक   कोई नहीं छुएगा. । सबकी लाडली जो थी । ट्रेन में बैठी बैठी रचना न जाने क्यों ये सब सोचे जा रही थी... ।
देखा सब उतर रहे हैं  अरे स्टेशन आ गया और वो ... वो स्टेशन पर उतरी, यहाँ से घर की दूरी ज्यादा नहीं थी, किंतु उसका भतीजा पहले से ही उसको लेने के लिए गाड़ी लगाकर उसका इंतजार करता परंतु आज उसने सोचा, किसी को नहीं बताऊंगी अचानक पहुंचकर सबको चौंका दूँगी, उसका ध्यान फिर माँ पर चला गया माँ सबका कितना खयाल रखती, मामा का लड़का, दादी का भतीजा, चाचाजी के चार पाँच बच्चे, मेहमानों का तांता और वो तीन भाई बहन, सारा काम निबटा लेती वो और भाभी फ़िर भी चेहरे पर कोई शिकन नहीं, किंतु आज पिताजी के गुजर जाने के बाद माँ जैसे अकेली हो गई या जाने क्या हुआ उसकी याददाश्त चली गई। घर में किसी को नहीं पहचानी, कभी- कभी तो घर से बाहर भी निकल जाती। तभी तो रचना हर हफ्ते माँ से मिलने आ जाती।
सोचते सोंचते गेट के भीतर आ गई तब ध्यान आया कि घर पहुंच गई। आज ऐसा क्यों लग रहा है अजीब सा सन्नाटा, रचना भाभी का पैर छू के बोली माँ नहीं दिख रही है. भाभी...? भाभी की बहू रत्ना पैर धोने के लिए पानी लेकर आ गई उसने रचना को प्रणाम करके कहा बुआ दादी पता नहीं कहाँ चली गईं हैं नहीं मिल रहीं हैं।
क्या ! कहीं चली गई, नहीं मिल रही है, अरे ऐसे कैसे नहीं मिल रही है..?बोलकर रचना निकल पडी, माँ को ढूंढने। उसके पास माँ की तस्वीर थी सबको दिखा- दिखा पूछती पर कोई नहीं बता पाता, अब क्या करे.? बड़े भईया शहर से बाहर रहते थे । उसने उनसे बात कि, दूसरे दिन वो भी आ गए. दोनों भाई बहन हर रोज माँ की खोज में निकल जाते। किंतु हर रोज निराशा ही हाथ लगती। अब रचना का मन  काबू में नहीं था। ख़ुद को रोक नहीं पा रही थी भावनाओं का गुबार जैसे उसे डुबाये जा रहा था क्या होगा, क्या माँ नहीं मिलेगी या माँ के साथ कोई अनहोनी, नहीं नहीं भगवान ऐसा न करना, वो रोने लगी । बेटा बहू सबके होते हुए भी माँ कैसे किन्तु अब ये सोचने से क्या लाभ, अब तो उसकी छुट्टी भी समाप्त होने को थी..। उसने  इश्तेहार निकलवाया और हर जगह चिपका दी फ़िर भी माँ की खोज में प्रतिदिन जाती । किंतु माँ का मिलना असम्भव सा हो गया था। अब तो उसकी छुट्टी भी समाप्त हो गई कल वापस जाना है, मन बोझिल आत्मा रो रही है। कहाँ ढूंढे माँ को आसमान खा गया कि धरती निगल गई, अखिर माँ गई तो कहाँ गई..। वो माँ दुर्गा के समाने हर रोज दिया जलाती थी, न जाने उसे क्या हुआ, माँ दुर्गा के सामने जाकर बोली- हे माँ अगर मेरी माँ नहीं आई तो आज से दिया जलाना बंद कर दूँगी, नहीं करूंगी तेरी पूजा। रचना ने दोपहर की ट्रेन से वापस आने के लिए जैसे ही बैग उठाया, अचानक बड़े भईया के फोन पर अंजान नंबर से फोन आया फोन करने वाले ने बताता आपने जिनका इश्तेहार निकलवाया है, उसमे जो माताजी हैं वो मेरे पास हैं..! ये तो चमत्कार हो गया,माँ तेरा बहुत-बहुत धन्यवाद, घर में खुशी का ठिकाना नहीं था । रचना उस दिन रुक गई दूसरे दिन वापस आई उसकी माँ जो मिल गई थी... 🙏🙏


इंदु उपाध्याय



 


 


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