तेरा आँचल
लफ्ज़ नही माँ, किन लफ्जो से तेरी महिमा गाऊँ,
अन्तर्मन के इस अनुभव के, शब्द कहाँ से लाऊं।
तेरे आँचल का स्पंदन, शीतल ठंडी छाँव,
पुण्य धरा रज निर्मल होती,पड़ते तेरे पाँव।
ईश्वर से बढ़कर पद तेरा,जग को सत्य बताऊं,
अन्तर्मन के इस अनुभव के, शब्द कहाँ से लाऊं।
आँचल तेरा पाने जग में,राम कृष्ण भी आये,
एक तेरा आशीष जगत की,नौका पार लगाए।
सागर जितनी भरी दुआएं,माँ तुझसे ही पाउँ,
अन्तर्मन के इस अनुभव के, शब्द कहाँ से लाऊं।
ज्यूँ गूंगे मीठे फल को रस,अंतर्गत ही भावे,
ऐसी तेरी महिमा है माँ नीरज लिख न पावे।
ह्रदय प्रेम की गागर का, मैं अमृत रस पी जाउँ।
अंर्तमन के इस अनुभव के, शब्द कहाँ से लाऊं।
रचनाकार
डॉ नीरज अग्रवाल नन्दिनी
बिलासपुर(छत्तीसगढ़)
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