माँ-विजेता


 शब्दों की भीड़ से
 चुना गया एक शब्द
 जिसके आगे दुनियाँ के
 सारे शब्द ठिगने से
               अधूरे से 
                व्यर्थ ...
               बेमानी से
                लगते हैं 
 पर रही जीवन की विडंबना यही
 कभी नहीं महसूसा ,समझा या
 कहा ही खुद उससे जिसने 
 हर पल दिया सहारा
 जब-जब गिरा
              थका
               रोया
 आकर उठाया, सहलाया ,हंसाया 
 पुकारने के पहले ही दौड़ दौड़
 मेरे अश्क पीने को रही आमदा
 क्या कभी कर पाऊंगा मैं उसका हक अदा
 उसकी हर उस रात के जागने का
 जो मेरी चिंता या प्रतीक्षा में बिताए उसने 
 हर सांस का
 जिससे हर पल मुझे सिंचा  उसने 
 कैसे कहूं क्या है  'वह' मेरे लिए
 उसका ही अंश उससे ही गढ़ा गया 
 समझ लो ना माँ! कभी खुद ही
 जो आज तक मुझसे ना कहा गया।


 


विजेता साव कोलकाता


 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ