मनमीत तुम परदेश क्या गये ।
मेरा जीवन मरुस्थल कर गये ।।
किससे इस जीवन की उलझनों की कुंजी सुलझाऊँ ।
कोई तो मिले ऐसा , जिसे मन की वेदना बतलाऊँ ।।
जन्मों तक साथ निभाने का तेरा वादा निकला झूठा
ओ मनमीत मेरे सात फेरों का वचन हो गया खोटा ।।
अब तो हर रिश्तो के बंधन में सम्भल कर रहते है।
नक़ली हंसी सजा कर जीवन के ज़हर घुट पीते हैं ।।
जीवन में अब किसी बात से दर्द का एहसास होता नही ।
तुमने जो काली रातों की सौग़ात दी उससे डरावन तो कुछ नहीं ।।
पहले गुलाब के काँटों से डर था लगता
अब तो जीवन के ख़ाली पन से भी ख़ौफ़ नहीं लगता ।।
रजनी कहती रोज़ तुम आन मीलों मनमीत ।
परदेश बसे जाकर प्रियतम मन से मिले मनप्रित ।।
मनमीत तुम परदेश क्या गये ।
मेरा जीवन मरुस्थल कर गये ।।
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