मेरी पहली रेल यात्रा -ज्योति

शादी के बाद गाँव से सीधे दिल्ली जैसे महानगर में जाकर वहाँ चकाचौंध से एक तो पहले ही परेशान थी, ऊपर से एक नया फ़रमान सुनाया गया.."सुनो वैष्णो देवी के टिकट बुक करवा दि inए हैं,अगले रविवार को ही चलना है"।हे भगवान अब क्या करूँ ! डर ये नहीं था कि वैष्णो देवी जाना है,असली डर तो ये था कि पहली बार रेल यात्रा करनी थी।
मन विचलित था,बाहर से देखी थी बस अंदर जाने का कभी मौका ही नहीं मिला था,छुक छुक चलती है, बहुत लम्बी होती है। रात भर नींद नहीं आई भगवान को याद करती रही और कहती रही कैसे भी करके रद्द हो जाये बस इस बार।
किसी को अगर ये बताती की मैंने तो कभी रेल यात्रा की ही नहीं है तो सब हँसते और पता नहीं क्या सोचते,बस यही चलता रहा और शनिवार आ गया। पतिदेव से भी नहीं कहा अंदर ही अंदर घबराती रही,ऐसे लग रहा था मानो माता के दर्शन को नहीं जा रहे मुझे सजा दिलाने ले जा रहे हों।
अब जब सिर को उंखल में डाल दी दिया तो धमाके से क्या डर,चार दिनों के लिए जाना था,मेरी पैकिंग देखकर सब एक दूसरे का मुह देखने लगे।पीछे से एक भारी भरकम सी आवाज आई.."साल दो साल वहीं रहने का विचार है क्या बहु रानी"।.पिता जी के वचन सुनकर थोड़ा कम किया लेकिन तब  भी इतना था कि अकेले पतिदेव के बस का नहीं था उठा पाना। मैं तो ऐसे तैयार थी मानो कोई जंग लड़ने जा रही थी।
पहली बार उस लम्बी सी छुक छुक करने वाली महाकाय मुसीबत में बैठना था मुझे,हाथ पैर फूल रहे थे, पसीने में तर हो गयी थी। मेरी हालत देखकर पतिदेव बार बार पूछ रहे थे "ठीक हो ना आप?" मैं बेचारी क्या बताती उनको किस मुह से कहती कि जिस  बला में आप रोज सफ़र करते हो मैंने उसके दर्शन भी ठीक से नहीं किये कभी।
अब क्या था अब तो आकर सामने खड़ी हो गयी थी,पतिदेव टिकिट निकाल कर सीट ढूंढने लगे मैं भी पीछे पीछे चल पड़ी। कुछ हुआ तो नहीं जिन्दा थी मैं...
सीट मिली और चल पड़े एक नए सफ़र पर...बहुत आराम से माँ के दरबार पहुँचे सबसे पहले धन्यवाद दिया कि माँ ने मुझे बचा लिया था।


 


ज्योति शर्मा जयपुर*


 



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