कहते हैं जीवन एक रंगमंच है। जिसमें बहुत कुछ सिखना ही होता है।दिखाना होता है। ऐसे ही सोच में बैठी थी कि अम्मा ने आवाज लगाई नेहा चौंके में तो आओ ज़रा तुम्हें रसोई का काम सिखा दूं नहीं तो ससुराल वाले कहेंगे इसके घर वालों ने कुछ सिखाया नहीं है। मैंने भी सोचा बात सच है । अम्मा कब तक साथ देगी ।चले रसोई में कम से कम रोटी बनाना तो आना चाहिए। मां के लाड़ कोड़ में पलते मेरा जीवन फ़ूल सा बन गया था । मां के हाथ का कौर ही हजम होता था।
जैसे तैसे रसोई घर में पहुंच गई ।पहले तो लम्बा आलस ऊपर हाथ कर के लिया ।हाथ आलमारी पर लगा डिब्बाजो रखा था धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। उसमें रखा अनाज बिखर गया था।वो सफाई करना मां ने सिखाया। प्रेम और वात्सल की प्रति मुरती अम्मा की मुस्कान ने मानो गुप्त शिक्षा देदी हो।
रोटी का आटा गूंथना शुरु किया जो कुछ गिला था।फिर रोटी कई आकारों में बनने लगी। फ़िर कई काले चट्टो वाली सेकी जानें लगीं ।खैर पहले तो डर लगा। रसोई का काम कितना कठिन है । अम्मा किस निर्भयता कुशलता, प्यार से सना भोजन बना कर खुश कर देती है ।जिसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती है।एक बड़ा पाठ पढ़ने को मिला। रसोई घर की सफाई मेरे लिये चौंकाने वाला काम था।अब समझ गई थी कि पूरे घर में रसोई घर एक यज्ञ शाला है।जिसको पावन व स्वच्छ रखना उतना हीं आवश्यक है जितना हमारे शरीर को इसको गंदा रखना माना जीवन को मलीन करना होगा ।इस सोच को मैंने भी गांठ बांधी और आज तक औरौ को भी इसका सन्देश देते हुए मां की याद भूलती नहीं है।
अमिता मराठे
इन्दौर
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