पहली रेल यात्रा-खुशबु


 सन् 2007 मैं लगभग 11 साल की थी ।नानी के घर से हाल ही में दिल्ली शिफ्ट हुई माँ के पास जाने की जोरो से तैयार चल रही थी ।साज श्रिंगार के लिऐ घुंघरु वाली  चुडि़याँ कत्थई रंग कि छोटी-छोटी  कानो की बालियाँ नाखून पालिश सब बाजार से ले आई थी। ईक गले का हार कम रह गया था वो भी छोटी मामी ले लिया था ।और आखिर मामी दे भी क्यो न कुछ दिन पहले ही उनलोगो के नज़र मैं मैं आदर्श जो बनी थी। और न जाने क्या-क्या तैयारियाँ कि थी।  पडो़स के नाना जी के साथ अब शुरु होना था हमारी दिल्ली जाने का सफ़र।  नानी के घर से जंक्सन दूर था ईस लिऐ हमे रात को ही निकलना पडा़। मैं बहुत खुश थी आखिर कितने दिनों बाद जो मम्मी के पास जो जा रही थी आखों कई सारे सपने लिऐ कुछ पुरे तो कुछ अधुरे मन मे कुछ हलचल मची थी। जैसे दिल्ली में लोग पक्के घरों में रहते होंगे रोज पोछा लगाते होंगे और वहां तो गाँव की तरह मिट्टी के चुल्हे पर खाना भी बनाना नहीं पडे़गा बारिश के मौसम में लक्कड़ के जलान के पडे़शान नहीं होना होगा शहर की जिन्दगी कितनी अच्छी होगी । और न जाने क्या-क्या ।
रात को जब हम दरभंगा रेलवे स्टेशन पहुचे तो दिल्ली जाने वाली गाडी़ मे विलंभ होने के कारण मैं, मामा जी ,नाना जी,और साथ में ईक और लड़का थी हम सब स्टेशन पर सो गऐ । सब लोग अपने सभी जरुरी सामान को सिर के निचे दबाऐ सो रहे सभी को ईक ही जगह जाना था चिंता कि कोई बात ही नहीं थी ।मगर सुबह होते ही सब ऊलटा हो चुका  था क्योंकि हमारा सारा जरुरी सामान चोरी हो चुका था जब मैं सुबह उठी तो देखा कि हमारा बैग  ही गायब था मैने जल्दी से सबको जगाया मामा जी ने आस पास देखा कहीं कुछ नाम निशान नहीं मिला मामा जी का शक उस लड़के पे गया जो साथ में आया  मगर कुछ हाथ न आया यहा तक हमारे पास जाने का टिकट भी नहीं बचा था क्योंकि सारी तैयारी हमने रात को ही कर लिया था फेर मामा जी ने केसे भी कर के हमे टिकट ला कर दिया और रास्ते खाने के लिऐ कुछ पैसे भी।और हमे दिल्ली जाने वाली रेल गाडी़ में बैठा दिया नाना जी बुजुर्ग थे वे हमेसा से टी-टी को ऊल्लू बना मुफ्त का सफ़र करते इसलिऐ वो  विकलांग वाले डब्बे मे बैठे थे तो हमें भी वही बैठना पडा़ वो लड़का घर से दाल की पुरी लाया था तो हम सबने मिल कर खाया हम लोग रेल में फर्श पर बेठे थे शायद टायलेट नल खडा़ब हो गया था तो सारा पानी फर्श पे आकर फैल गया फेर हमे भी शीट पर बैठा लिया गया ।
अगली सुबह नाना जी ने हमे उबले हुऐ आलू और लौकी सब्जी और पुरी दिलाया उसके साथ हरी मिर्च भी था ।थोडी़ देर बाद कोई स्टेशन आया नाना जी रेल से उतर के ऐसे लाठी के सहारे ऐसे चलने लगे जैसै सच मे वो विक्लांग हो उनकी मंजिल आगई है और उनका अब दूर-दूर तक रेल से कोई मतलब नहीं ।दरसल बात ये था कि टी-टी आ रहा था ।टी-टी साहब आऐ टीकट चेक किऐ और अगली दरवाजे़ से उतर लिऐ और नाना जी पिछले दरवाजे आकर फिर अपनी जगह परस्थान किऐ और पहुँच गऐ दिल्ली रेलवे स्टेशन ।मम्मी ईक दूर के फूफा जी के घर पे रह रही थी तो ह जी फूफा जी के गैरेज़ पर गऐ वहा से भईया के साथ रिक्सा पे बैठ कर दिल्ली के उस ख्वाबो वाले घर में पहुँच गऐ जहाँ रहने के लिऐ झाडूु पोछा करना पड़ता था ।


 


कुमारी खुशबु दिल्‍ली


 



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