राधेश्याम जी एक मन्दिर के पुजारी थे,दो बेटियों के पिता थे।समयानुसार बेटियों की शादियाँ अच्छे घरों में करके अपनी बूढ़ी माँ और पत्नी के साथ मंदिर में आये चढ़ावे से आराम से दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो जाता था। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के कारण भगवान के पट सबके लिए बन्द कर दिए गए, जिसके चलते चढ़ावा आना बंद हो गया था।जितना घर में संचित किया राशन था वह भी खत्म होने लगा था रोटी मिलना भी मुश्किल हो गया था।
बड़ी बेटी नीता बहुत समझदार थी,उसे अपने परिवार वालों की चिंता हो रही थी पर लोक लिहाज से पति को कहने में संकोच कर रही थी,कैसे कहती कि मेरे माता पिता की सहायता करो और पिता जी से भी नहीं पूछ पा रही थी सोच रही थी कहीं उनको ये ना लगे कि वो उन्हें गरीब बताना चाह रही है,समस्या बहुत गम्भीर थी।बहुत सोचने के बाद माँ से बात करने का निर्णय लिया,फ़ोन लगाया.."माँ कैसे हैं आप लोग,दादी कैसी हैं, पिता जी कैसे हैं?"सबके बारे में पूछा लेकिन आर्थिक स्थिति के बारे में नहीं पूछ पाई!
उधर से माँ ने बहुत मधुर स्वर में आशीर्वाद दिया और कहने लगी.."सब अच्छे हैं यहाँ,अरे सुनों नीता, नीरज जी को कहना लॉकडाउन केवल इक्कीस दिन का है उसके बाद तो सब ठीक हो ही जायेगा,इतना राशन भिजवाने की क्या जरूरत थी हम तीन ही तो लोग हैं कितना खाएँगे भला?...इतने में तो तीन महीने से भी ज्यादा निकल जाएं" नीता अपने सामने बैठे अपने पति नीरज को बहती आँखो से निहारते हुए उन गर्व महसूस करने लगी।
ज्योति शर्मा जयपुर
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