स्कूलों पर होतो राजनिति का बच्चों पर प्रभाव-अलका

दुखद है कि शिक्षा जैसी व्यवस्था में भी, जिसमें सरकार का निर्धारित कार्य लोकहित का निष्पादन करना है, ऐसी गंदी राजनीति अपने देश में होती है, जहां लोकतंत्र अपेक्षाकृत जीवंत है। यह राजनीति उन बच्चों के साथ हो रही है, जो अपने हित की बात नहीं कर सकते। एक तरफ गरीब घरों के मासूम बच्चे, जिनके लिए सरकारी स्कूल शिक्षा पाने का इकलौता अवसर है, सरकार और उसकी नीतियों की गिरफ्त में हैं, तो दूसरी तरफ संविदा पर नियुक्त अधिकांश शिक्षक वास्तव में शिक्षित बेरोजगार हैं। गरीब इलाकों के इन शिक्षित बेरोजगारों से कमजोर तबका शायद ही देश का कोई श्रमिक वर्ग होगा। जबकि राजनेता उन्हें अपनी गिरफ्त में करके अपनी सियासी रोटियां सेंक रहे हैं।
शिक्षक का दर्जा समाज में बड़ा ही सम्माननीय तथा उच्च माना गया है। वह नैतिकता व आदर्शों का प्रेरणास्रोत तथा जीवन-मूल्यों के सतत नियामक रूप में भी जाना गया है। शिक्षक के रूप में एक विनयशील, अनुशासनबद्ध और आदर्श जीवन पर चलने वाले व्यक्ति को मान्य किया गया है तथा माना गया है कि उस पर समाज, राष्ट्र तथा मानव जीवन की सभी नैतिक जिम्मेदारियां हैं। समय के साथ ‘गुरु’ के आदर्श रूप की व्यवस्था मिटने लगी है तथा जीवन के दूसरे क्षेत्रों में कार्यरत लोगों की तरह ही शिक्षक भी बनता चला गया। बनता क्यों नहीं, वह भी हाड़-मांस का पुतला है, उसकी भी जिम्मेदारियां तथा महत्त्वाकांक्षाएं हैं। गिरते जीवन-मूल्यों की इस आंधी ने शिक्षक के आदर्श स्वरूप को झिंझोड़ कर रख दिया और आज तो हालत यह है कि शिक्षक जगत में भी भ्रष्टता ने अपना घर बना लिया है।
शिक्षक बनते ही व्यक्ति पर नैतिकता का एक मुलम्मा अपने आप चढ़ जाता है। उसके द्वारा किया जाने वाला हर कार्य आदर्शों की कसौटी पर तोला जाता है और वह हमेशा एक मानसिक दबाव का जीवन जीता है। ईमानदारी और सच्चाई की प्रतिमूर्ति बनकर भी उसे जीना पड़ता है; पर समाज का उसके प्रति जो नजरिया है उसमें रात-दिन का बदलाव आ गया है। मान-सम्मान तथा सेवा-भाव का जो दृष्टिकोण पहले शिक्षकों के प्रति हमारा रहा है, वह सर्वथा नए आयामों में बदल गया है।  भौतिक सुख-सुविधाएं समाज के दूसरे क्षेत्रों के लोग तो ले लें, पर शिक्षक अपनी वही फटीचरी जिंदगी जीता रहे, यह दोयम दर्जे की मानसिकता हमारे लिए घातक रही। जहां तक छात्रों के रवैये का सवाल है, वह बिल्कुल बदल गया है। स्कूल शिक्षक हो या कॉलेज शिक्षक, हर जगह शिक्षक को ही नीचा देखना पड़ रहा है। छात्रों में बढ़ती अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता और आए दिन होने वाली हड़तालें, उनके प्रति बढ़ते असंतोष का प्रतीक हैं। श्रद्धाभाव तो तनिक नहीं रहा, बिना गुरु के ज्ञान नहीं मिल सकता, यह बात असत्य मानी जाने लगी है।
जहां तक शिक्षकों में ट्यूशन पढ़ाने के बढ़ते चलन का प्रश्न है, वह प्रासंगिक बन गया है। अल्प वेतन में जिस दायित्व की पूर्ति हम सोचते हैं, वह कतई संभव नहीं है। उसकी भी जरूरतें हैं, दायित्व हैं, बच्चे हैं, उनका लालन-पालन, ब्याह-शादी, जो भी मनुष्य रूप में उसे मिले हैं, उन्हें उसे निभाना ही है। जटिल होते जीवन संघर्ष में यदि वह इस श्रमसाध्य सहारे का आसरा नहीं लेगा तो वह कई मोर्चों पर हार जाएगा। दूसरे क्षेत्रों में जहां भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी तथा लूट-खसोट मची है, वहां शिक्षकों को इस तरह के अवसर बहुत कम हैं। गांव की प्राथमिक शाला में बिना किसी स्कूल बजट के पढ़ा रहे शिक्षक से किस घोटाले की आशंका की जा सकती है? अधिक से अधिक शिक्षक पर यह आरोप आ जाता है कि उसने रुपए लेकर छात्र के अंक बढ़ा दिए या उसे उत्तीर्ण कर दिया, पर यह इतना न्यून है कि वह यहां भी अपने नैतिक व आदर्श स्वरूप को बचाए हुए है। इस दृष्टि से वह जो श्रम करके पैसा कमाता है, उसे किसी भी तरह गलत नहीं कहा जा सकता। समाज में अच्छी बातें कहने व उपदेश देने वाले तो बहुत हैं, पर उन पर अमल करने वाले गिने-चुने हैं। शिक्षक समुदाय में अभी गैरत बची है। अब यह बात दीगर है कि स्कूलों में सरकार की ओर से साधन ही सुलभ न हों तो उसके लिए शिक्षक क्या करें?
जहां तक शिक्षकों द्वारा छात्रों को शिक्षा देने का सवाल है, उसका संबंध हमारे बदलते जीवन मूल्यों से सीधा जुड़ा हुआ है। नए जीवन मूल्यों का असर यह है कि अधिकतर छात्र न तो पढ़ना चाहते हैं और न अभिभावक उन्हें दिशा ज्ञान देना चाहते हैं। सबका जोर सब किसी तरह कोई नौकरी पा लेने पर है, वह चाहे तिकड़म से ही क्यों न मिले। फिर, भी यह बहस जब-तब चलती रहती है कि दिशा ज्ञान देने का दायित्व माता-पिता पर है या शिक्षक पर? सच तो यह है कि यह विवाद ही निरर्थक है, दिशा-ज्ञान देने का दायित्व दोनों पर है। न तो गुरुइससे बच सकता और न ही अभिभावक। आज अभिभावकों के पास समय नहीं है। वे जीविकोपार्जन के अलावा अन्य बातों में इतने उलझ गए हैं कि घर में भौतिकता की आंधी तो ला रहे हैं लेकिन ज्ञान का उजाला कम कर रहे हैं। वे दिन के चौबीस घंटों में से दस मिनट बालक के लिए नहीं निकाल पा रहे। माता-पिता को बच्चे की पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना होगा, इस पर गौर करते रहना होगा कि वह पाठ्यक्रम से इतर और क्या-क्या सीख रहा है, उसमें कैसी आदतें विकसित हो रही हैं, उसमें कैसी रुचियां पनप रही हैं, उसकी दिलचस्पी किन विषयों में ज्यादा है।
अगर कोई भटकाव दिखे तो शिक्षक को जानकारी देनी होगी तथा अपने स्तर पर भी उसे दूर करने का प्रयत्न करना होगा। अन्यथा ज्ञान का पाठ पूरा नहीं होगा तथा संस्कारहीनता के कारण उसका सही मार्ग से विचलित हो जाना स्वाभाविक होगा। शिक्षक भी इस मामले में अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचे नहीं होते। उनका जीवन छात्र के लिए दर्पण की तरह होता है जिसमें वह अपना अक्स देखता है। यदि वे ही आदर्श जीवन से हटने लगेंगे तो आगे आने वाली नई पीढ़ी का नागरिक नाकारा तथा संस्कारहीन ही होगा। परिवार बालक की प्रारंभिक व प्राथमिक शाला हो सकता है, पर स्कूली जीवन से जो तमीज, तहजीब और तालीम की दीक्षा उसे दी जाती है, उसका दायित्व उन्हीं का है। उससे बचने का प्रयास उन्हें नहीं करना चाहिए। वे ही यदि छात्रों के साथ खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल तथा उठने-बैठने में व्यवहार की कसौटी नहीं रखेंगे तो वे किस आदर्श की बात करेंगे?
नि:संदेह आज के हालात में शिक्षकों के सिर पर दोहरी जिम्मेदारियां हैं। एक तो स्वयं के स्वरूप को इस भौतिकता की अंधी दौड़ से बचाना, साथ ही छात्र को नई रोशनी में संस्कारशील होने की राह पर ले जाना है।आज देश में भाषा, क्षेत्र तथा जाति के नाम पर टकराव की प्रवृत्तियां पनप रही हैं। सांप्रदायिक शक्तियां सिर उठा रही हैं, देश के विकास में रोड़े डाल रही हैं। ऐसे में यदि शिक्षक नन्हें नागरिकों को दिशा ज्ञान तथा सामान्य कर्तव्य-बोध के साथ राष्ट्रीयता का पाठ नहीं पढ़ा सकें तो भारत का भविष्य निश्चित ही अंधकारमय है। स्वार्थ लोलुपता तथा निजी, क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं की लड़ाई में व्यक्ति महत्त्वपूर्ण होता गया है। निजी स्वार्थ साधने के चक्कर में कई बार देश, समाज और कानून की परवाह नहीं की जाती। सबसे बड़े रोल मॉडल वे लोग माने जाने लगे हैं जिन्होंने खूब पैसा बनाया है। जिन्होंने जीवन में कुछ त्याग किया है और किन्हीं मूल्यों के लिए संघर्ष किया है, पर आर्थिक सफलता हासिल की है, उन्हें कहीं पूछा नहीं जाता। ऐसे में देश और समाज के लिए मरने-खपने की प्रेरणा कहां से मिलेगी! बच्चों के भविष्य को राजनिति का अखाड़ा न बनाया जाए उनके चरित्र निर्माण किया जाए ।


 
डॉ अलका पाण्डेय


 



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