गाँव की यादें-अलका

..
मेरे दादा जी का घर मिट्टी काथा 
पर दिल सोने का था ...


मिट्टी का घर था ....दिल सोने का था , 
गाँव के वहीं पुराने दिन बहुत याद 
आते है ....वहीं दादा का घर ...


मेरे दादा जी का घर मिट्टी का था 
हम सब बहुत प्यार से रहते थे ।
एक दूसरे पर जान देते थे ,
बड़ों की ख़िदमत करते थे ।।
खूब पैर दबाते चवन्नी पा ख़ुश होते ....
पर अब हम शहर आ गये है ,
हमारा घर भी पक्का व शानदार हो गया है  ।।
पर वह मिट्टी की सोंधी खुशबू नहीं आती ,
प्यार का वह जज़्बा भी नहीं रहा ....
वह नीम का पेड पंछीयों का चहचहाना ,
दादा जी की आने जाने वालों की राम राम ......
श्यामा गाय का रभांना यहाँ वह सब कुछ नहीं है .....
बस यादें है मन के कोने में दबी ...
बस है तो भागते लोग 
कांकरीट के जंगल ,
निस्तेज आंखे , भावहीन चेहरे 
और एक अंत हीन दौड ...
बडा अजीब सा , लगता है पड़ोसी ....
पड़ोसी को नहीं पहचानते ।।
याद आता है दादा जी का घर 
बडा सा आँगन , आगन का हैडपम्प , घर के बहार कुआँ ...
और बंदरों का उत्पात 
भले ही गाँव में सुविधाओं की कमी थी 
पर था अपार अपनापन 
औक़ात सबकी छोटी ही सही ....
मगर इंसानियत में बहुत बड़े थे 
सुख दुख के साथी थे , 
याद आता है  खेत ...
खलियान ... आमराई ...
यहां है सुविधाएँ तो बहुत है 
पर आदमी एकदम अकेला है 
तन्हाई,  ही एक मात्र साथी है 
दादा जी के बहार बरोठे में 
रोज जमती थी चौपाल ,
ठहाकों पर ठहाके और
कहकहो  से गूंजता था आकांश ....
हुक्के के घुये से सारे
ग़म बहार निकल जाते थे ....
अभाव था पर खुशीयों में कमी नहीं थी 
बाईस्कोप का अपना मज़ा था ...
पर अब तो सब है पर खुशीयां ही रुठी है ....
याद आता है दादा जी का घर 
मिट्टी का था इसलिये ...
शीतलता थी ,
नम्रता थी माँ के आँचल का एहसास था । 
झूले का आन्नद .....
आसमान के नीचे चाँद तारो की बातें , 
ठंडी ठंडी पुरवईयां थपकी दे सुलाती थी .....
सुरज की पहली किरण चेहरे को चूमती थी ...
चिड़ियों का कलरव 
आन्नदीत करता ....
अब सब सपना सा लगता है 
कुछ कुछ अपना सा लगता है !


मेरे दादा जी का घर मिट्टी का घर था, 
पर दिल सोने का था 
मेरेदादा जी का घर मिट्टी का था 
पर दिल सोने के थे 
अब गाँव की यादें ही शेष ......



अलका पाडेंय (अगनिशिखा मंच)
देविका रो हाऊस प्लांट  न.७४ सेक्टर १
कोपरखैराने  नवि मुम्बई च४००७०९
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