गंगा दशहरा पर विजेता की प्रस्‍तुति

 जब भी सुकून की चाह में
 मन भटकने को आया है
 सच कहूं हे मां गंगे !
 याद आया तेरा किनारा है
 सुबह की शीतल बयार हो
 या सांझ की सुनहली छांव हो
 तेरे ही लहरिल कल्लोलों पर
 बहता यह मन हमारा है
 हे गंगे !कब छूटा तेरा किनारा है
 जब-जब व्यथित हुआ ये  मन 
 सूना सा लगने लगा जब ये जीवन
 तट -अंक पर बिठा अपने 
 तूने ही संवारा मन प्रांगण 
 दिया प्रेम का सहारा है 
 हे गंगे ! घर संसार मेरा तेरा ही किनारा है 
 जाने कितनी सुबह, दुपहरिया सांझ 
 बिताए है मैंने तुम्हारे ही साथ 
 तैरती ,डूबती उतराती नैया को देख 
 भूले हृदय पर के कितने ही ठेस
 मां की तरह सदैव अपने आंचल में
 बैठा दिया स्नेह बहुत सारा है
 हे गंगे !भूलता ही कब तेरा किनारा है 
 पूरी दुनियाँ में भटक कर 
 थोड़ा हंस बहुत रो कर
 सारे पाप -पुण्य जोड़कर 
 रिक्त हस्त और जीवन लेकर 
 थोड़ा जी कर पूरा मर कर 
 जब जब जीवन ने सताया है
 सच कहता हूं 
 हे गंगे !याद आया बहुत तेरा किनारा है 
 जीवन पथ पर चलते -चलते 
 जब थक कर सो जाऊंगा उम्र ढलते- ढलते 
 तेरे ही किसी तट पर लाकर 
 करेंगे जब मेरी अस्थियां विसर्जित 
 शायद कुछ सगे मेरे रोते-रोते
 तब भी चिर निद्रा में पावन करोगी 
 मेरी ईह औ पारलौकिक यात्रा
 तुम ही हंसते हंसते 
 हे गंगे !अंतिम ठौर भी तो तेरा ही किनारा है

   डॉक्टर विजेता साव
कोलकाता


 



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