हे गंगे
बह रही तुम अविरल
पापहारिणी विष्णुपदी
वर्षों से पी रहीं तुम गरल,
मानवता विलुप्त हुई
गंगा क्षत विक्षत हुई ,
मानव विकास काल बना
बंध गई सीमाओं से
प्रहार फिर भी न रुके
नित घायल अत्याचारों से
पुनीता, निर्मला औ पावन गंगा
पतितों के हाथ पड़ी
कर रही रुदन,
मेरे बच्चों मुझे संभालो
सुन लो पुकार क़्रंदन
मेरे अमृत जल मे
यूं विष न घोलो,
संकीर्ण मानसिकता के
द्वार अब तो खोलो,
रोग ,किटाणुरहित जल मेरा
भरपूर प्रयोग करो
मैला, मुर्दा, राख बहाकर
न मेरा दुरुपयोग करो,
हर हर गंगे कह
जो नर शीश झुकाता,
जन्मोजन्म के पापों से तर जाता,
फसलें सींचती गंगा
धरा मे प्राण फूंकती गंगा
अद्भुत गुणों से भरपूर
जगत उद्धारिणी गंगा,
आज कर रही गुहार
मेरा दामन साफ़ करो,
जननी हूँ तुम सबकी
कुछ तो इंसाफ़ करो,
बच्चों दम तोड़ रही हूँ मैं
पल पल मर रही हूँ मैं
अपनी गंगा माँ को बचा लो
याचना कर रही हूँ मैं
नम्रता सरन "सोना"
भोपाल, म.प्र।
9425006890
साहित्य संस्कृति मंच 2016
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