मुझको मेरा गाँव याद है,
वो पीपल की छाँव याद है
धूम मचाते जो बारिश में
वो मिट्टी वाले पाँव याद है।
याद है माँ का दही बिलोना
छुपा के मक्खन माँ का सोना
चोरी से वो चट कर जाना
और फिर माँ का हमको धोना
मिट्टी का चूल्हा और चक्की
उस मिट्टी की पकड़ थी पक्की
साथ बैठकर सलाह बाँटते
और फिर करते खूब तरक्की
वो माली का बाग आम का
लगता हमको बड़े काम का
जब भी जाते तोड़ ले आते
झंझट नहीं था कोई दाम का
घर की वो मुँडेर थी न्यारी
जिस पर बुलबुल आती प्यारी
मीठे शब्द सुनाती थी वो
जैसे बरसाती फुलवारी
हरे खेत वो सूखी बाली
एक बिजूका एक था माली
सर्द रात जब सब सो जाते
करते खेतों की रखवाली
वो पनघट की चरस याद है
वो जाड़े वाला बरस याद है
वो झूले पर सखियों के संग
अपनी बारी की तरस याद है
याद है वो दादी की बातें
बड़ी कहानी छोटी रातें
सोचा हमने उसे कहानी
वो बुनती थी रिश्ते नाते
वो न्योता दावत का आना
लगा कि पंगत बैठ के खाना
एक लड्डु को दबा हाथ में
वो चुपके से घर पर ले आना
छुट्टी में ननिहाल को जाना
वो नानी का प्यार जताना
तंग करते उनकी बछिया को
फिर नानी से डंडे खाना
नुक्कड़ नाटक जब होते थे
रातों को फिर कब सोते थे
कभी राम सा धनुष चलाते
सूपनखा बनकर रोते थे
खेल अनोखे न्यारे थे वो
घर मिट्टी के प्यारे थे वो
पत्थर भी माणक मोती थे
तब अनमोल हमारे थे वो
वो बचपन के यार निराले
रहते थे कैसे मतवाले
कौन पूछता था घर किसका
कर लेते थे कहीं निवाले
धूप हुआ करती थी भारी
जब मस्ती की होती तैयारी
कौन देखता था सूरज को
पांव में थी तब दुनिया सारी
हाथ में लेकर पाटी बस्ता
तय करते स्कूल का रास्ता
गाड़ी मोटर किसे चाहिए
पैदल चलना लगता सस्ता
फिर से बचपन में खो जाऊँ
फिर से में बच्चा हो जाऊँ
वो गाँव की गलियां ला दे कोई
फिर से लम्बी दौड़ लगाऊँ।
ज्योति शर्मा जयपुर राजस्थान
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