कंक्रीट का फैला, कैसा जंगल?
पेड़ पौधों से बना था जंगल।
छायादार, फलदार फूलों से जो लदे थे पेड़,
न जाने किसकी नजर को चढ़ गये?
कुल्हाडी, आरी न जाने किन-किन औजारों से,
दर्द पहुंचाया इन पेड़ो को।
दर्द न जाना इस हरियाली का,
कुचलने लगा मानव किस प्रकार।
मानव ने ऐसी ठानी है,
कंक्रीट का महल सजाने की,
ऐ,मानव थाम ले अपनी नादानी,
पेड़ न होगे जीवन में गर,
तो सांस कैसे ले पाओगे।
अपने स्वार्थ के लिए क्या तुम,
धरती माता को चोट पहुचाओगे।
शपथ लो तुम आज ये सब,
एक पेड़ लगाएँगे फिर से
धरती माता को हरा-भरा बनाएँगे।
खुश होगी ये धरती माता,
लहराऐगे फिर से जंगल ।
स्वाती चौहान देहरादून
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