संस्मरण- गंगा में फिसली गीता,ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'

ज भी गंगा का वह दृश्य मेरे आंखों के सामने आता है तो मैं सिहर उठता हूं. न जाने कहां से मुझ में वह शाक्ति आ गई थी,'' गीता को बचाना है. चाहे जो हो जाए !'' दिलदिमाग व मन में यही चिंगारी सुलग रही थी. बस ! जम कर हाथ पकड़ लिया. गंगा के प्रवाह ने झटका दिया. गीता बह चली. मैं ने तुरंत लपका. हाथ पकड़ लिया. पैर वही की जंजीर में फंसा दिए. दोनों हाथों से गीता को पकड़ लिया. फिर खींचने लगा.आसपास के लोग किंकर्तव्यविमूढ़ से देख रहे थे. उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें ? शायद ! उन्हों ने इसी तरह यहां कई लोगों को बह कर मरते हुए देखा होगा. यह सब इतनी तीव्रता से हुआ कि कुछ समझ में नहीं आया. एक सैकण्ड की देरी बहुत कुछ अनर्थ कर सकती थी.। यह क्षण जब भी याद आता है मैं कांप उठता हूं. यदि उस दिन जरासी चूक या देरी हो जाती तो गीता बह जाती. तब मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं होता. यह सोच कर आज भी घबरा जाता हूं.।जीवन में ऐसे अमूल्य और अविस्मरणीय क्षण भी आते हैं जब कोई शक्ति आप का साथ देती हैं. यह बात 25 मार्च 2001 की बात है. जब माताजी 21 जनवरी 2001 को गौलोकवासी हो गई थी. पिताजी ठीक दो माह बाद यानी 21 मार्च 2001 को हमें छोड़ कर चले गए थे.यह संयोग ही कह लीजिए कि जिस तरह दोनों एक ही तारिख को धरती छोड़ कर गए उस दिनांक को दोनों की तिथि एक ही यानी बारस ही थी. ऐसा संयोग कभी कभी होता है। पिताजी के फूल यानी अस्थियां गंगा में प्रवाहित करना थीं. इसलिए हम पतिपत्नी और 6 वर्ष की पुत्री सहित हरिद्वार गए थे. यह उसी समय की घटना है. मगर, यहां घटनाओं का सिलसिला ही चला था. कहते हैं कि मुसीबत आती है तो एक साथ में आती है. ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ।
हम बस से हरिद्वार पहुंचे थे. बस से उतरे तो बच्ची को भूख लग आई थी. बस स्टैण्ड पर होटलें देखी. एक गुमटी थी. सोचा कि गरीब ब्राह्मण की गुमटी है उसी पर कुछ खा लिया जाए. इस से अप्रत्यक्ष रूप से गरीब की मदद हो जाएगी. इसलिए उस गुमटी के पास गए.उस गुमटी पर लिखा था— दस रूपए की पाव पूड़ी. यह देख कर हम ने उस से कहा, '' भाई साहब ! ढाई सौ ग्राम पूड़ी दीजिएगा.''उस ने पूड़ी दी. हम ने खाई. जब दस रूपए दिए तो वह बोला, '' भाई साहब ! 120 रूपए दीजिए.''यह सुन कर हम पतिपत्नी दोनों चौंक उठे,'' भाई साहब ! यहां क्या लिखा है ! जरा ध्यान से पढ़ लीजिए— दस रूपए की पाव पूड़ी. हम ने पाव भर पूड़ी ही ली है.'' मैं ने चकित होते हुए कहा.यह सुन कर वह गरीब ब्रह्मण झुंझला कर बोला,'' पाव का मतलब जानते हो.'' उस ने चिढ़ कर हमें समझाया,'' पाव यानी मैदे की पूड़ी. यह दस रूपए की एक है. हम ने आप को 12 पूड़ी दी है. इस के हिसाब से 120 रूपए होते हैं.'।'
यह सुनते ही हमें गुस्सा आ गया. हम ठगे जा चुके थे. मगर, बहुत माथाफौड़ी करने के बाद भी हमें उसे सौ रूपए देना पड़े. कोई हमारी तरफ नहीं बोला. यहां से ठगे हुए हम एक आटो वाले के पास गए. वह बोला ,'' वहां जाने के 150 रूपए लगेंगे.'' 
यह सुन कर हमें दूसरा झटका लगा. यह हरिद्वार है या ठगोंद्वार. हमारे मुंह से निकला.हम सीधे एक पान वाले के पास गए. वहां से मीठी सुपारी ली. उस से पूछा, '' भाई ! हमें शांतिकुंज जाने के लिए क्या करना होगा ?'' तब उस ने बताया, '' आप उस बस में बैठ जाइए. वह पांच रूपए ले कर आप को वहां उतार देगा.''इस तरह हम शांतिकुंज पहुंच गए. भूख जोर की लगी थी. पहले ठगे जा चुके थे. शांतिकुंज के कैंटीन में गए. वहां सात रूपए की पाव पूड़ी लिखी हुई थी.।
दूध का जला छाछ फूंकफूंक कर पीता है. इसलिए हम ने कांउटर पर सात रूपए दिए. रसीद ली. पाव पूड़ी ली. देखा दस पूड़ी थी. खाई. फिर दोबारा पाव पूड़ी ली. खाई. लगा कि हम वाकई हरिद्वार में आए हैं.
पंडेपुरोहित की यह ठगी हमें जिंदगी भर याद रहेगी. यह सोच कर हम वही रात रूकें. मगर, रात को दो बजे पत्नी उठ बैठी. उस के पेट में बहुत दर्द था. हम बहुत घबराए. रात को किस को बुलाए. हिम्मत कर के बाहर निकले. इधरउधर देख कर आगे बढ़े. एक जगह लिखा था आपातकाल में द्वार के पास वाली जगह पर संपर्क करें.।
डरतेडरते वहां पहुंचें. एक व्यक्ति सोया हुआ था.उसे उठाया. उस ने भलीभांति पूछपरख कर हम से हालचाल जाना. तब हमें कुछ गोली दी. वह ले कर हम अपने आवास पर आ गए. पत्नी को दी. वह दो घंटे बाद आराम कर के सो गई.
यह हरिद्वार की रात बड़ी मुश्किल से कटी. सुबह चार बज उठ कर पिंडदान किया. पत्नी की इच्छा थी कि गंगाजी के दर्शन करें. यहां आए है.गंगा स्नान न करे तो उद्धार नहीं होता है.।मैं ने समझाया,'' तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. कमजोरी है.गंगा स्नान बाद में कर लेना.'' मगर, पत्नी नहीं मानी. बोली, '' नहीं जी ! आज ही पिताजी का पिण्डदान किया है इसलिए नहाना जरूरी है.''।
वह मेरे लाख समझाने पर नहीं मानी. मैं उसे ले कर गंगा के किनारे चला आया. पुत्री को एक चादर पर बैठा दिया. वहीं आवश्यक कपड़े उतार कर रख दिए. फिर पत्नी को कहा, '' मेरे साथ संहल कर आना.''तभी पास खड़े सज्जन बोले, '' भाई साहब ! संहल कर डूबकी लगाना. आज बहाव बहुत ज्यादा तेज है. यहां से कई लोग बह गए हैं.'' उन सज्जन ने हमें चैताया.
तब मैं ने पत्नी से कहा, '' लोटागिलास ले लो. उसे से शरीर पर पानी डाल कर स्नान कर लेना.'' मगर, पत्नी का कहना था, '' पिण्डदान के बाद गंगा में डूबकी लगाना जरूरी है.'' कह कर मेरे निर्णय को खारिज कर दिया.भला मैं क्या जवाब देता. पत्नी की बात मान ली. उस का हाथ पकड़ लिया. वह जैसे ही पानी में उतरी. सीढ़ियों पर काई जमीं हुई थी. पैर के नीचे काई आ गई. वह बहाव के झटके से फिसली. उस का हाथ झटके के साथ छूट गया।
वह तेज बहाव में बही. न जाने मुझे क्या सूझा. गीता को बचाना है. यह अचानक दिमाग में कौंध गया. मैं तुरंत उछल कर कूदा. सीधा गीता के पास गया. तेजी से उस का हाथ पकड़ लिया. पैर अचानक जंजीर के पास चला गया था। उस से जंजीर में पैर की आटी लगा दी. यह सब इतने जल्दी हुआ कि मुझे ही पता नहीं चला कि क्या हो रहा है ? मेरा हाथ गीता के हाथ में था. वह तेज बहाव में पानी पर लहरा रही थी. कोई शक्ति उसे पानी में खींच रही थी. मैं ने पूरी शक्ति लगा कर गीता को खींचा.बस, सोच लिया था जो भी हो, पत्नी को बचाना है. चाहे इस के लिए मुझे ही बह कर क्यों न पानी में जाना पड़े. इतनी हिम्मत न जाने कहां से आ गई थी. अचानक दूसरा पैर आगे वाले खंबे की ओर किया. उस पर जोर देते हुए गीता का खींचा।वह झट से मेरी ओर आई. मैं चींख पड़ा,'' गीता ! इसे पकड़ लो.''गीता घबराई हुई थी. उस ने झट से जंजीर पकड़ ली।बस, यही क्षण था, वह संहल गई. तब तक कुछ लोग दौड़ कर आ गए. गीता को पकड़ कर बाहर निकाल लिया. मेरी जान में जान आ गई. जैसे ही मैं बाहर निकला, एक भाई साहब दिल थामें यह मंजर देख रहे थे.वे बोले, '' भाई साहब ! आप किस्मत वाले है. आप की पत्नी बच गई. अन्यथा, पानी में बह जाने के बाद आज दिन तक यहां से कोई जिंदा नहीं बचा है.''।
यह सुनते ही मैं और मेरी पत्नी आवाक रह गए. दोनों एक दूसरे को देखते रहे. जैसे दोनों को नवजीवन मिला हो. कई घंटे वैसे ही निर्जीव से बैठे रहे. तब अचानक गंगा को प्रणाम कर के उठ बैठे. फिर चुपचाप उठ कर अपने आवास की ओर पर चल दिए.आज जब भी उस घटना को याद करता हूं कांप उठता हूं. यदि उस समय मेरी पत्नी बह जाती तो मैं किसकिस को क्याक्या जवाब देता ? क्यों कि मैं ने प्रेमविवाह किया था. इसलिए मुझ पर कोई भी, कुछ भी आरोप लगा सकता था.

                                   
ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
अध्यापक, पोस्ट आफिस के पास
रतनगढ-485226 जिला-नीमच (मप्र)
मोबाइल नंबर--9424079675


 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ