आँगन बचपन का-किरण बाला


संस्मरण


जन्म स्थान... एक ऐसी जगह जिसे व्यक्ति कभी भुला नहीं सकता भले ही उससे कितनी दूर क्यों न चला जाए। मेरे अतीत की स्मृति में वो अभी तक इस तरह बसा हुआ है कि उसकी एक-एक चीज मुझे अच्छी तरह से याद है।मेरे पापा सिंचाई विभाग में इन्जीनियर के पद पर कार्यरत थे तो उनकी नौकरी ही इस तरह की थी कि उनका तबादला होता ही रहता था। यही वजह रही कि मेरा बचपन भी कई शहरों में गुजरा ।हाँ,तो मैं बात कर रही थी अपने जन्म स्थान यमुमानगर की । शहर से बाहर की तरफ सिंचाई विभाग का दफ्तर जो कि मेन गेट से बाईं तरफ था और उसके दाहिनी तरफ कुछ दूर जाकर सरकारी रिहायशी मकान बने हुए थे ।जिस घर में मेरा जन्म हुआ उसकी सबसे बड़ी खासिसत यह थी कि उसके आगे की तरफ घर में ही सुन्दर सा बागीचा था अन्दाजन सौ गज तो वो होगा ही और साथ ही पीछे की तरफ भी काफी खुली जगह थी ।घर के दाहिनी तरफ बड़ी सी खेतनुमा जगह थी जहाँ पर गन्ने और हरी सब्जियाँ लगी हुईं थी, जिनकी देख-रेख सरकारी माली करता था ।बागीचे में एक बड़ा सा आम का पेड़ था... मेरे चाचा जी जो उस समय हमारे साथ रहते थे तो हमें उस पेड़ का डर दिखाते हुए कहते थे कि अगर हम भाई बहन में से कोई भी कोई गलती करेगा तो उसे पेड़ से लटका देंगे।अब बच्चे तो बच्चे ही ठहरे, सबकी सभी बात को सच मान लेते हैं.... तो हमें भी उस पेड़ से थोड़ा सा डर लगता था ।यमुनानगर में हम सिर्फ पाँच या छह साल रही होंगे,उसके बाद हम लोग चरखी दादरी आ गए। उसके बाद तो यही सिलसिला जारी रहा,कभी यहाँ तो कभी वहाँ ।
यमुनानगर वाले घर की यादों में एक घटना ऐसी है कि मुझे अभी तक याद है.... हुआ यूँ कि एक दिन लुका-छिपी के खेल में मैं खेलते- खेलते स्नानघर में चली गई और कहीं कोई मुझे ढूँढ न ले तो मैंने दरवाजे की चिटकनी नीचे से बन्द कर ली । काफी देर हो जाने पर सब मुझे ढूँढने लगे... पूरी कॉलोनी में देख लिया गया पर किसी को जरा भी अनुमान नहीं था कि मैं घर में ही हूँ । मुझे सबकी आवाजें तो सुनाई दे रही थी किन्तु मैं डर की वजह से चुप थी कि मुझे डाँट पड़ेगी ।
मैंने बहुत कोशिश की कि चिटकनी को खोल कर बाहर आ जाऊं पर वो मुझसे खुल नहीं पाई । मुझे भूख भी लग रही थी और डर भी इसलिए मैंने जोर-जोर से रोना शुरु कर दिया तब जाकर सबको पता चला कि आखिर हुआ क्या है?तब तक काफी लोग इकट्ठा हो चुके थे, मुझे अलग-अलग हिदायतें दी जा रही थी कि कैसे दरवाजा खोलना है... कोई मुझे तसल्ली दे रहा था कि घबराओ मत,अभी तुम्हें बाहर निकालते हैं.... वगैहरा-वगैहरा ।पापा ने तब तक बढ़ई को बुलवा लिया था कि दरवाजे को किस तरह से खोला जाए , एक डर ये भी था कि यदि दरवाजा तोड़ दिया जाए तो कहीं मुझे चोट न लग जाए।सभी इसी उधेड़बुन में थे कि क्या किया जाए तभी मानो कोई चमत्कार हो गया, अचानक से दरवाजे की चिटकनी खुल गई । सभी हैरान थे कि ऐसा कैसे हो गया !अब तो सब मुझसे पूछने लगे कि कुण्डी कैसे खुली? मैंने तुतलाते हुए जवाब दिया कि ऊपल(रोशनदान की तरफ इशारा करते हुए) से दुरूजी आए और तुन्दी थुल दई ।
बहुत दिनों तक सभी यही सवाल मुझसे बार-बार करते रहे कि बेबी कुण्डी कैसे खुली... और मैं वैसे ही उन्हें जवाब देती रही ।
आज उन बातों को लगभग चालीस साल हो चुके हैं ,वहाँ की और भी बहुत सी यादें हैं जो मैं अभी तक भूल नहीं पाई । उसके बाद वहाँ अभी तक जाना नहीं हुआ पर मन तो बहुत करता है कि एक बार वहाँ जरूर जाया जाए।फिर ये सोचकर अब तक जाना नहीं हुआ कि इतने सालों में क्या मुझे सब कुछ वैसा मिलेगा जैसा कि मैं वहाँ छोड़कर आई थी ?
 
           ---- किरण बाला  , चण्डीगढ़


 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ