दर्द-अर्चना

कभी साथ बैठो तो बताऊँ
 दर्द क्या है ?
अब यूँ  दूर से पूछोगे,
 तो कैसे बताऊँ।
 सुख मेरा कांच जैसा था। 
टूटने पर
 न जाने कितनी बार
 चुभा मुझे।
 तुम साथ बैठते तो बताती,
 कि दर्द क्या है? 
क्या गुनाह था मेरा?
कि,
 यही,
 मुझ में छल-कपट न था।
बरसों बरस बीत गए ।
चुभती रही किरचें मुझे।
 तुम साथ बैठते 
तो बताती
दास्तां!
 जो कैद है मुझ में।
 यूँ 
 वक्त बीतता गया।
 मैंने
 माना यही है सुख 
स्वीकार करती रही 
हर कर्तव्यों को ।
झेलती  अकेली ,
तुम्हें ढूँढती हूँ 
 कभी,
 तुम साथ बैठते 
तो सुनाती दर्द क्या है ?


झेल चुकी हूँ,
जिंदगी!
 तन्हा ,अकेली।
 तुम साथ बैठते तो
 बताती  क्या है....



अखिल भारतीय अग्निशिखा मंच 


अर्चना पांडेय


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