डसने का दंश-रेखा दुबे


बाथरूम से नहाकर निकली यासमीन ने अपने बालों को जैसे ही झटका तो वे नागिन की तरह उसके गोरे गोर मुख से लिपट गए। जिससे उसकी खूबसूरती में जैसे, चार चांद लग गए हों।वह वरांडे में खुशबुएँ बिखेरती अपने आप में मस्त होले-होले बालो को सुखाते हुए बाहर गुनगुनी धूप की तरफ आगे बढ़ ही रही थी कि एक काला सा साया उसका पीछा करते महसूस हुआ। कुछ समझ पाने की कोशिश करती, कि एक बेवजह वजनी सा हाथ का अपने कंधे पर दवाब महसूस किया। 
हिंचुक ! इस से पहले कि वह पलटती। अपने से दुगनी उम्र के उस मनहूस आदमी की मजबूत बाहों में कैद हो चुकी थी। उसने बाहर निकलने की लाख कोशिश की लेकिन अपने आप को उस मजबूर पंछी की तरह पिंजरे की जालियों से लड़ते हुए पाया।
अब वह रुआंसी होकर अपने आप को उस ज़ालिम से छुड़ाने की मिन्नतें कर रही थी। फिर भी वह बेशर्म नहीं माना तो उसने माँ और दीदी से सबकुछ बताने की धमकी भी दी। लेकिन उस हैवान पर इसका भी कोई असर न हुआ। उसकी आँखों में तो आज इंसांनियत की हदें पार करने का खून जो उतरा हुआ था। उसकी इस मासूम सी प्रार्थना का जवाब उस कमीने की जोरदार अट्टहास थी। जो वातावरण में घुल कर उसे हथियार डालने पर मजबूर कर रही थी।
 "... अरी किससे कहेगी? 
जिसे मैंने कभी पसन्द किया ही नहीं ।
भला मर्दानी मूरत पर भी कोई मरता है क्या ?
..मैंने तो तुझे देखा था! 
एक बार तू न करके तो देख। आज ही तेरी बहन को तलाक न दे दूँ तो कहना?
मेरी तो झट दूसरी शादी हो जाएगी। तेरी बहन और माँ -बाप का क्या होगा?
...और फिर अपनी सोच! 
मखमल में टाट का पैबन्द, तेरा ये जो लचक मारता पैर है ना...उसके सँग कौन शादी करेगा तुझसे? 
कभी सोचा भी है। मैंने तो सोचा था दोनों बहनों का उध्दार हो जाएगा। अपना क्या जी?
कोई भी मिल जाती। अब तो सब तेरे हाथ में है। बहन को सुहागन रखे या विधवा सा जीवन जीने की मजबूर कर दे। तेरे गरीब माँ-बाप दो-दो जवान लड़कियों का बोझ कैसे उठाएंगे? 
कह कर, उसके सर्पीले हाथ यासमीन के सुनहरी बदन पर रेंगने लगे। यास्मीन खून के घूंट पी कर भी उस मरदूद की बातें चुप-चाप सुन रही थी। उसकी आखों के आँसू जहर के प्याले भरने लगे। आखिर वह क्या करे? किससे कहे? डसने का दंश न दिखा सकती थी ना छुपा सकती थी। आज मौन की चादर ओढ़कर बचपन में ही वह प्रौढ़ हो चली थी। 
तभी कुदरत की मार की तरह एक कड़कड़ाती बिजली की तरह फुर्तीली काया उतरी और उस प्रौढ़ आदमियत को को पस्त करती हुई निकल गई। पलक झपकते ही उसने अपने आपको माँ की तरह एक आँचल में छुपा पाया।
सिसकते हुए यास्मीन के मुँह से निकला, "दीदी आपका उपकार..." 
आगे के शब्द दोनों की हिचकियों में खो गए।


 रेखा दुबे, विदिशा मध्‍यप्रदेश



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