हरेला पर्व उत्तराखंड में सावन माह में हर्षोल्लास से मनाया जाने वाला पर्व है । कुमायूँ प्रांत में खासतौर पर मनाए जाने के कारण इसे कुमायूँनी त्यौहार भी कहा जाता है । हरेला अर्थात् हरियाली का दिन । अतः यह कह सकते हैं कि इसका सीधा संबंध पर्यावरण से है । एक तरह से इसे प्रकृति पूजन का ही रूप कहा जा सकता है। एक मान्यता यह भी है कि इसे शिव पार्वती के विवाहोत्सव के तौर पर भी मनाया जाता है । सावन आगमन से ही वर्षा ऋतु का आरंभ हो जाता है । इसलिए हरेला को वर्षा ऋतु की पहली फ़सल के रूप में भी देखते हैं। इसकी तैयारी सावन के महीने से दस दिन पूर्व ही आरम्भ हो जाती है । किसी परत या थालीनुमा बर्तन में सतनाजा , अर्थात् सात प्रकार के अनाज जैसे जौ , चना , सरसों , धान , उड़द , गेहूं , सरसों आदि के अलग अलग बीजों को मिट्टी में बोया जाता है और नियमित रूप से प्रातः संध्या को पूजन अर्चन के पश्चात जल दिया जाता है। नौ दिन तक यही प्रक्रिया चलती है तत्पश्चात दसवें दिन इस अंकुरित फ़सल को ईश्वर के चरणों में अर्पित करने के बाद विधि विधान से पूजन किया जाता है । शिव पार्वती की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं जिनकी पूजा की जाती है । पुराणों के अनुसार इस पर्व को गुप्त नवरात्र की संज्ञा भी दी जाती है।
चैत्र और आश्विन मास में मनाए जाने वाले नवरात्र तो सभी जगह धूमधाम से मनाए जाते हैं। किन्तु सावन मास के इस नवरात्र को गुप्त ही माना गया है । परिवार के सभी सदस्य अच्छी फ़सल की प्रार्थना करते हैं और उनके परिवार में धन- धान्य की सदैव आपूर्ति रहे , सभी खुश रहें , इस तरह की भावना को मन में धारण किए अपने से सभी बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं। इसके बाद घर की लड़कियाँ सभी के माथे पर तिलक करती हैं । इसके बदले सभी उन्हें आशीर्वाद के रूप में कुछ रूपए या उपहार देते हैं ।घर की बुजुर्ग महिलाएँ सभी को हरेला लगाती हैं जिसका आरम्भ पहले पाँव से किया जाता है उसके बाद घुटनों पर , कंधों पर और सबसे बाद में सिर पर लगाया जाता है। जो कि उनके प्रकृति के प्रति प्रेम को उजागर करता है । कहा जाता है कि पुराने समय में घर की महिलाएँ अपने दुख सुख साझा करने वृक्षों के पास ही जाती थीं । पेड़ों से बातें करना ,उन्हें राखी बांधना , प्रकृति से इस तरह का आत्मीय संबंध उनके वनस्पति प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाता है ।
इस दिन को अब वृक्षारोपण दिवस के रूप में भी मनाया जाता है । लोग अपने परिचितों को उपहार के तौर पर पेड़ भेंट में देते हैं । घर में विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं । शाम को खीर बनाई जाती है । कुछ जगहों पर सामूहिक तौर पर पूजा की जाती है । इस त्यौहार को लेकर बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है । लोकगीतों की झड़ी तो इस उत्सव में चार चाँद लगा देती है ।
किरण बाला, चंडीगढ़
0 टिप्पणियाँ