मैं साइकिल हूँ। लोग मुझे बाइसकिल और शुद्ध हिन्दी के आग्रही द्विचक्रवाहिनी भी कहते हैं। मेरी खोज कब और किस सन् में हुई या किसने की, यह तो मुझे ठीक से नहीं पता लेकिन इतना जरूर जानती हूँ कि सामान्य ज्ञान की किताबों में मेरी खोज करने वाले के बारे में जो लिखा और बताया गया है, वह गलत है। क्योंकि जहाँ तक मेरा मानना है, मैं आधुनिक युग की देन नहीं हूँ बल्कि पुरा पाषाण काल में जब मनुष्य आदिमानव के रूप में था, जंगल में रहता था। निर्वस्त्र था। कंद-मूल, फलफूल खाकर अपना जीवन-यापन करता था। आग और पहिये की खोज नहीं हुई थी। जंगली जानवरों से अपनी रक्षा के लिए गुफा में छिप कर अपने को बचाने का प्रयास करता था। धीरे-धीरे समझ विकसित होने पर उसने पत्थरों के नुकीले औजार बनाना शुरू किया और पत्थरों से औजार बनाने के क्रम में उनकी रगड़ से जब उसमें से चिंगारी निकली तब उसे आग का पता चला, जिसे मानव-जीवन के इतिहास में एक बड़ी खोज मानी गयी। कालान्तर में उसने वृक्षों की लकड़ियों (शाखाओं) के माध्यम से अपनी जरूरतों के सामानों को यहाँ से वहाँ ले जाना शरू किया. जिससे उससे लगा कि इस तरह से हम अपने बोझ को, अपने सामानों को आसानी से एक जगह से दूसरे जगह ले जा सकते हैं। उस लकड़ी के सहारे सामान ढोने के क्रम में पहिये की खोज हुई। यानी कि आगकी खोज के बाद पहिये का जो आविष्कार और निर्माण हुआ, वह मेरी मूल आत्मा थी। यह तो इतिहास और भूगोल के अनुसार बातें हुईं लेकिन यदि वैदिक ग्रन्थ और पुराणों में अपना अस्तित्व तलाशना चाहूँ तो मैं कह सकती हूँ कि मेरा आधार स्तम्भ, यानी कि मेरा मूल रूप, चक्र है। जिसके आधार पर मुझे द्विचक्रवाहिनी कहा गया। वह चक्र जो भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में है, भगवान श्रीविष्णु के हाथों में है और हर देवताओं के रथों के पहिये के रूप में है। __इस तरह से यदि मैं अपनी उत्पत्ति की बात करूँ तो शायद सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग अर्थात् सभी युगों में, सभी लोकों में, यहाँ तक कि यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस आदि हर समाज में मेरी उपस्थिति बदले हुए रूप (पहिये) में दिखायी देगी तो कभी उड़ने वाले विमानों के पहिये के रूप में। इस प्रकार मैं अपनी उत्पत्ति के इतिहास को सृष्टि के विकास से जोड़ते हुए दैवीय संस्कृति के इतिहास तक और सतयुग से लेकर कलयुग तक सबसे जोड़ते हुए आधुनिक सभ्यता तक अपने आप को पहुंचाई हूँ। लेकिन आप इसे मेरा शायद बड़बोलापन कहें और निराला की कविता कुकुरमुत्ता के अहंकार से जोड़ दें, तो ठीक है मैं आपके इस आरोप को स्वीकार करते हुए अपने को वर्तमान से जोड़ती हूँ। मेरा अतीत क्या था! इस पर मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मुझे निराला की कविता कुकुरमुत्ता का वह स्वरूप नहीं साबित करना है जो श्रीविष्ण के चक्र से लेकर राजाओं के छत्र तक अनेकानेक रूपों में रेखांकित हआ है। यदि मैं ऐसा कहँ तो शायद उस कुकुरमुत्ते की तरह मेरी भी यह अतिशयोक्ति हो। तो मैं इधर अपने बारे में बताना चाहूँगी कि मैं लोगों की जीवन-संगिनी हूँ, उस अर्थ में जिस अर्थ में मेरी बहनें- स्कूटी, मोटरसाइकिलें, कारें आदि रखैल हैं। जिस प्रकार पत्नी कम खर्च में या बिल्कुल अभाव में भी अपने पति के साथ आसानी से गुजर-बसर कर लेती है, साथ ही पूरे परिवार की मनोयोग पूर्वक सेवा भी करती है; जबकि रखैल बिना पैसे के एक कदम भी आगे नहीं चलती। उसी प्रकार मैं भी अपने मालिक की चाहे उसकी पॉकेट में पैसा हो या न हो, पूरे मन से सेवा करती हूँ। मेरी अन्य बहनें मुझसे जलनवश कहती हैं कि तुम तो अपने मालिक का खून पीती हो, अर्थात खून पीकर चलती हो, जबकि हम लोग मात्र पेट्रोल-डीजल से ही काम चला लेते हैं। अब उन बेवकूफों को कौन समझाये कि मैं खून नहीं पीती बल्कि अपने मालिक को वर्जिश यानी की एक्सरसाइज कराती हूँ। उन्हें स्वस्थ और निरोग रखने में उनकी मदद करती हूँ। मेरी अन्य बहनें जहाँ प्रदूषणवाहिका हैं, वहीं मैं प्रदूषण-मुक्त हूँ। स्वच्छ मन, निर्मल काया, यही मेरी पहचान है। सादा जीवन, उच्च विचार की वाहिका और पोषिका हूँ। लोग मेरे मालिक से व्यंग्य में मुझे हेलीकॉप्टर कहते हैं, वे लोग जो हेलीकॉप्टर को नजदीक से देखे या छुए तक नहीं हैं, उसमें चढ़ना या उससे यात्रा करना तो दूर की बात है। जबकि मैं सचमुच अपने मालिक के लिए किसी हेलीकॉप्टर या जहाज से कम नहीं हूँ। एक समय था कि मेरी सवारी करने के लिए हर बालमन लालायित रहता था। फिर, बालमन ही क्यों! कलमकारों तक को मैं इतनी प्रिय थी कि प्रेमचन्द की परम्परा के प्रमुख लेखक सुदर्शन ने तो 'साइकिल की सवारी' नाम से बच्चों के लिए एक रोचक निबन्ध ही लिख डाला। मेरी अन्य बहनों की सवारी करने वाले भी अपने बचपन में मुझसे स्नेह करते थे। मुझसे ही उन्होंने खड़ा होना, चलना तथा अन्य साधनों को चलाना सीखा है। एक तरह से मैं न उन सबकी नर्सरी-टीचर हूँ, बल्कि स्कूल भी हूँ। मैं लोगों के ईंट ढोने से लेकर चारा लाने, गेंहूँ पिसवाने, धान कुटाने, तेल पेराने, बाजार कराने, तीज-खिचड़ी पहुँचाने, रिश्ते-नाते जाने, स्कूल-कॉलेज जाने, मेहनत-मजदूरी करने या नौकरी-व्यापार और कोर्ट-कचहरी जाने आदि तक में काम आती हूँ। कभी-कभार तो सामान्य परिवारों के लिए मैं डोली भी बन जाती थी और नयी-नवेली दुल्हन को अपने पर बिठाकर उसके पति के साथ हँसतेखिलखिलाते, बतियाते मैं उसे उसके घर पहुंचा देती थी। कभी मेरा मालिक अपने बच्चे या पत्नी के बीमार पड़ने पर मेरे सहारे बड़े मजे में डॉक्टर के यहाँ पहुँच जाता था और जितने पैसे का वहाँ जाने में मेरी अन्य बहनों पर तेल खर्च होता, उससे कम खर्च में वहाँ से दवा लेकर वह वापस आ जाताइतना ही नहीं जब मुझे लेकर लोग रिश्ते-नाते में या अपने किसी परिचित, मित्र आदि के यहाँ जाते थे तो चाहकर भी वहाँ से तुरन्त वापस नहीं आ पाते थे और ना ही कोई उन्हें आने देता था। लोग यह कहकर रोक लेते थे कि इतनी दूर से आये हैं, थके हैं, आज रुकिए, भोजन-पानी कीजिए और आराम कीजिए। रात भर सोकर जब सुबह उठेंगे तो आपकी थकान मिट गयी रहेगी और फिर सुबह आराम से नहा-धोकर, भोजन-पानी करके यहाँ से जाइयेगा। ऐसे में लोगों को रुकने और एक दूसरे का सुखद:ख जानने, बोलने-बतियाने, खाने-पीने एवं साथ में रहने-सोने के लिए पर्याप्त अवकाश मिलता था। आपस में आत्मीयता बनी रहती थी। जबकि हमारी बहनों को माध्यम बनाकर लोग जबसे कहीं आना-जाना शुरू किये हैं, तबसे वहाँ पहुँचने के पहले ही वापसी का प्लान तैयार कर ले रहे हैं। उनके दिमाग में बना हुआ है कि वहाँ पहुँचकर घण्टे-आध घण्टे रहेंगे और फिर रात होने से पहले घर वापस आ जायेंगेनतीजा, लोगों को आपस में खुलकर बोलने-बतियाने अथवा सुख-दु:ख जानने का अवसर नहीं मिल पाता। यानी कि सीधे शब्दों में यदि कहूँ तो कह सकती हूँ कि मैंने रिश्तों को बचा और सँजो कर रखा था। मेरे माध्यम से सम्बन्धों में जीवन्तता बनी हुई थी। स्वार्थ के कीड़े रिश्तों को काटना तब तक शुरू नहीं किये थे, जब तक कहीं जाने-आने का माध्यम मैं बनी रही। कारण, लोग अपने घरों से कहीं जाने के लिए जब बात मन में लाते थे तो उनके सामने पैसे की समस्या नहीं होती थी। उनकी सोच इस बात पर जाकर नहीं अटक जाती थी कि वहाँ जाने में इतने रुपए का पेट्रोल और डीजल खर्च होगा। उन्हें अपने बल पर, अपने शारीरिक सौष्ठव पर, अपनी ऊर्जा और अपनी शक्ति पर भरोसा रहता था। जब मन किया, जिसकी याद आयी, साइकिल उठाये और चल दिये। तात्पर्य यह है कि जब से समृद्धि और दिखावे का फैशन चला है, सम्बन्धों की चूलें हिल उठी हैं। रिश्तों में दरारें आ गयी हैं। स्वार्थ की आँधी और अर्थ-लिप्सा की अन्धी दौड लोगों पर आज इस कदर हावी है कि हर सम्बन्धों को केवल पैसे पर तौला और देखा जाने लगा है। कहीं जाने-आने से पहले लोग हानि-लाभ का गुणा-गणित लगाने लगे हैं। सबसे अधिक तकलीफ तो मुझे इस बात की होने लगी है कि जो सामान्य, अति सामान्य और मध्यम वर्ग के लोग मुझे सहारा बनाकर प्राइमरी एजुकेशन से लेकर हायर एजुकेशन तक की शिक्षा प्राप्त किये और पढ़-लिख कर ऊँचे पदों को प्राप्त किये, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर वैज्ञानिक बने, यहाँ तक की राजनीति में आने वाले, व्यवसायी-दुकानदार, जनप्रतिनिधि चाहे वह ग्राम पंचायत के हों या देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद के, सबने मिलकर मेरी उपेक्षा और तौहीन शुरू की। जो मुझे शान की सवारी मानते थे, झाड़-पोछ और चमका कर रखते थे, वह समय बदलने के साथ मुझे इस तरह से देखने लगे जैसे मैं उनकी साथी नहीं, अस्पृश्य हूँ। अछूत हूँ। मुझे छूने या अपना बताने से उनके रोब को ठेस पहुँचने लगी। ऐसे लोग मेरे मालिक से व्यंग्य-स्वरूप मुझे हेलीकॉप्टर और जहाज कहकर मेरी खिल्ली उड़ाने लगे तथा मुझसे प्रेम करने वाले को हेय दृष्टि से देखने लगे। मेरे और मेरे मालिक के प्रति उनकी उपेक्षा का भाव उनके इकोनॉमिक स्टेटस का सिम्बल बन गया। उनके इस दिखावे और कृत्रिम जीवन जीने के परिणामस्वरूप वे शारीरिक रूप से अक्षम, अपंग और कमजोर हुए। ऊँचे मकानों और महलों में रहकर टेलीविजन के सामने बैठकर योग-प्रशिक्षण का कार्यक्रम देखते हुए बेड पर ही लेटे-लेटे साइकिलिंग करना शुरू कर दिये। शायद उन्हें पता नहीं कि बेड पर सोकर झूठ-मूठ का पैर फैलाने-बटोरने अथवा गोल-गोल घुमाने से साइकिलिंग नहीं होती, बल्कि उसके लिए जमीन पर उतरना पड़ता है। पैरों से ताकत लगाकर पावदान मारना और चलाना पड़ता है। मेरी कदर करनी होती है। मेरे प्रति लगाव रखना होता है। तब कहीं जाकर मैं उनको स्वस्थ और निरोग रख पाती हूँमुझसे दूरी बनाने की ही देन है कि आज के अधिकांश लोग चालीस-पचास की आयु होते-होते बुढ़ापे के सारे लक्षणों से युक्त हो जा रहे हैं। हाथ, पैर, घुटना कमर आदि क्षमता से कम काम करने लगे हैं लेकिन आज भी जिस कमजोर वर्ग का मैं स्टेटस सिम्बल बनी हुई हूँ, उन्हें शारीरिक रूप से मजबूत रखी हूँ। कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है लेकिन आज यह वाक्य केवल कहने-सुनने के लिए रह गया है। आदर्श की बातें व्यवहार से दूर होकर केवल सिद्धान्त-रूप में रह गयी हैं। यानी कि ज्ञान दूर और क्रिया भिन्न है। नतीजा, न केवल शारीरिक रूप से अपितु मानसिक रूप से भी लोग कमजोर होने लगे हैं। जबकि सत्यता यह है कि मुझसे प्रेम करने वाले अपने जीवन को आज भी पूर्ण सन्तोष-वृत्ति के साथ सुखी, स्वस्थ और प्रसन्न रखे हुए हैकह सकती हूँ कि आम जनजीवन की रोजमर्रा की चीज हूँ मैं। जब मन किया, जहाँ मन किया, लोग सर्र से मुझे घर में से निकाले और फर्र से उड़ पड़े। चन्द मिनटों-घण्टों में मंजिल पर। काम पूरा। ना मुझे बहुत साफ करने या पोंछने की जरूरत, न तेल-पानी चेक करने की। बहुत हुआ तो दो पम्प हवा भर लिये, उसके लिए भी पैसा देने या किसी दुकानदार के यहाँ जाने की जरूरत नहीं। घर पर पम्प न हो, तो भी काम चल जायेगा। मँगनी का पम्प जो हाजिर है। वाल कटा तो बिना पैसे का वाल बदल जायेगा। अंग थोड़े हिलडुल रहे हों, खड़खड़ा- भड़भड़ा रहे हों तो वे भी बिना पैसे के कस जायेंगे। आधे से अधिक अंगों को मेरे मालिक बिना किसी डॉक्टर यानी कि मिस्त्री के यहाँ गये स्वयं दरुस्त कर लेते हैं। शेष के लिए डॉक्टर के यहाँ जाते भी हैं तो अक्सर बिना फीस के ही इलाज हो जाता है, क्योंकि मेरा इलाज किसी पीजीआई, अपोलो या नामीगिरामी अस्पताल अर्थात अक्सर बिना फीस के ही इलाज हो जाता है, क्योंकि मेरा इलाज किसी पीजीआई, अपोलो या नामीगिरामी अस्पताल अर्थात बड़े सर्विस सेन्टर में न होकर झोलाछाप डॉक्टरों के यहाँ होता है; जहाँ न कोई नफासत होती है, न शोषण। ब्लैकमेलिंग अथवा झूठ बोलने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। जुगाड़-संस्कृति मेरे यहाँ खूब फलती-फूलती है। मसलन मेरा मालिक मुझे लेकर कहीं जा रहा है और बार-बार चेन उतरने लगे तो उस पर धूल-मिट्टी उठाकर डाल देगा और इस प्रकार उसकी नजर में मेरा नखरा खत्म, यानी कि चेन उतरना बन्द। आगे की पहिया में यदि हवा कम है तो वह पीछे कैरियर पर बैठकर मुझे चला लेगा, पीछ कम है तो डण्डे पर बैठकर चला लेगा। सीट टूट गयी तो कपड़ा- बोरा आदि रखकर चला लेगा। घण्टी खराब हो गयी तो मह से बोलकर काम चला लेगाहैण्डल खराब हआ तो हैण्डल छोडकर चला लेगा। तीरी (तीली) टट गई तो बची हई तीरियों (तीलियों) में टूटी हुई तीरी (तीली) को लपेट कर चला लेगा। चेनकवर भड़भड़ाने लगा तो रास्ते में पड़े हुए ईंट-पत्थर का टुकड़ा उठाकर ठोंक-पीट कर सही कर लेगा, ज्यादा दिक्कत हुई तो चेनकवर तोड़कर उसे निकाल लेगा और बिना चेनकवर के चला लेगा। रास्ते में कोई मिल गया तो उसे मुझ पर बैठा कर लगे हाथ पुण्य भी कमा लेगा। एक तरफ का पावदान टूट गया तो एक ही से काम चला लेगा, दोनों तरफ का टूट गया तो दौड़ाकर चढ़ जायेगा और कुछ दूर तक मजे में बिना चलाये ही डगराते हुए चला जायेगा। आगे ढलानयुक्त सड़क मिल गयी तब तो मेरा मालिक जैसे राजा हो जाता है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं। उस छोटी खुशी में वह बड़ा सुख खोज लेता है, जैसे उसके लिए वह ढलानयुक्त कोई सड़क न होकर कोई बड़ा राज्य या बड़ी कीमती चीज हो। कारण, इतनी देर में वह रिचार्ज हो जाता है और बड़े मजे से जब तक मैं ढलान पर अपने से चलती हूँ तब तक वह सुस्ता लेता है___ सड़क या बढ़िया रास्ते पर तो वह मजे में चलता ही है, अगर नाली- नाला कीचड़-कादो, ऊबड़-खाबड़, डाँड़-मेढ़, पानी आदि पड़ गया तो वह बड़े मजे में मुझे उठा भी लेता है।ज्यादा दूर तक रास्ता खराब हुआ तो कन्धे पर भी टाँगकर चल लेता हैबारिश में तो मुझे चलाने का उसे मजा ही कुछ और होता है। माथे से चूती पसीने की बूदों का स्वागत-सम्मान मानो भगवान अपने माथे के पसीनों की बूदों को उसके ऊपर गिराकर करते हों; मतलब यह कि जैसे भगवान इन्द्र स्वयं मेरे मालिक का जलाभिषेक करते हों। सड़क के किनारे खड़े, गुमतियों आदि की आड़ में छिपे मेरी बहनों के अभिजात्य मालिक उस समय ईर्ष्यालू निगाहों से मेरे मालिक को देखते हैं और मेरा मालिक युद्ध जीते हुए राजा की तरह खाली मैदान में सरपट अपना घोड़ा दौड़ाते हुए अगल-बगल विजयी निगाह से देखते, मुसकराते, श्रम-सीकरों के साथ इन्द्र के जलाभिषेक के बरौनियों पर ढुलकते कणों को पोंछते विजयी मुद्रा में चला जाता है। ऐसे में मैं भी अपने मालिक का भरपूर सहयोग करती हूँ और बिना रुके-थके, बिना बिगड़े उड़ती चलती हूँ। उस समय मुझे भी लगता है कि मैं कितनी भाग्यशाली हूँ जो अपने स्वामी के काम आ रही हूँ। उस समय मुझे लगता है कि मेरी बड़ी बहनें (बड़ी इस अर्थ में कि वे खा-पी कर मोटी-ताजी रहती हैं, सुखी तो नहीं पर धनी घर में रहती हैं, गरीबों का खून चूसकर बनी-ठनी, निकली रहती हैं।) तो दूर कोई हेलीकॉप्टर या जहाज भी मुझसे मुकाबला नहीं कर सकता। कारण, कुहरे आदि या खराब मौसम होने की दशा में जहाँ हवा में उड़ने वालों की हवा निकल जाती है, उनकी उड़ानें रद्द हो जाती हैं, वहीं मैं स्वयं वार्मअप होते हुए अपने मालिक को भी वार्मअप रखती हूँ। उसकी सारी अकड़न, ठिठुरन, कम्पन मुझ पर बैठते ही छू-मन्तर। गरमी, आँधी, लू-थपेड़े का भी कोई असर नहीं। मैं अपने मालिक को हर मौसम से दो-दो हाथ करने के लिए सदैव तैयार रखती हूँ। अन्दर से सॉलिड-मजबूत। मैं अपने मालिक की प्राण-रक्षा और अर्थ-रक्षा करने के साथ-साथ राष्ट्र -रक्षा, समाज-रक्षा और पर्यावरण-रक्षा भी करती हूँ। प्राण-रक्षा इस अर्थ में कि मेरा उपयोग करने वालों को एक्सीडेण्ट का डर न के बराबर होता है। अर्थ-रक्षा इस अर्थ में कि मेरी अन्य बहनों का हर महीने का जितना ब्यूटी पार्लर यानी कि मेन्टीनेन्स, धुलाई, डीजल-पेट्रोल आदि का खर्च है, उससे बहुत कम खर्च में मेरी पूरी ओवरहालिंग हो जाती है। टायर-ट्यूब, रिंग आदि बदल जाता है। इस प्रकार एक बार ओवरहालिंग हो गयी तो फिर कई वर्ष के लिए मेरा मालिक टेन्शन- फ्री। वैसे तो वह टेन्शन-फ्री हमेशा ही रहता है क्योंकि टेन्शन लेना और देना तो बड़े पेट वालों का काम होता है, जो कभी भरता नहीं। मेरा मालिक तो हमेशा दूसरों का पेट भरता है और भरते रहने को सोचता है। राष्ट्र-रक्षा, समाज-रक्षा और पर्यावरण-रक्षा इस अर्थ में कि मेरे चलने से कोई घातक या विषैली गैस नहीं निकलतीकिसी प्रकार का कोई प्रदूषण नहीं होता। घण्टी की आवाज से किसी की सुनने की क्षमता नहीं समाप्त होती। मैं उनकी आवाज और पहचान हूँ जो मडगार्ड को मोटरगाट कहते हैं, फ्री ह्वील को फिरी कहते हैं, हैण्डल को हण्डिल कहते हैं। यहाँ तक कि मुझे भी साइकिल की जगह सइकील कहते हैं। मैं उनकी जुबान, पहचान और उनकी अस्मिता की प्रतीक हूँ। मैं गरीबों की प्रतीक और पहचान तो हूँ ही, देश की दो प्रमुख पार्टियों का चुनाव-चिह्न भी हूँ। मेरी सवारी करके ही उत्तर प्रदेश में दो तिहाई बहुमत के साथ अखिलेश यादव की सरकार बनी थी। मेरे ही बल पर मुलायम सिंह भी कई बार मुख्यमंत्री और बाद में देश के रक्षा मंत्री बने थे। मुझसे प्रेम करने वाली सपा को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता पिछले चुनाव में मिलते-मिलते रह गयी थी। अगर मिल गयी होती तो मैं राष्टीय पार्टी का चनाव-चिह होती। न भी मिला तो क्या फर्क पडा! उत्तर प्रदेश के साथ-साथ दक्षिण भारत में भी मैं एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी का चुनाव-चिह्न हूँ। मैं तो कहती हूँ कि राष्ट्रीय स्तर पर मेरी उपयोगिता, मेरी महत्ता और मेरे त्याग को देखते हुए सरकार द्वारा मुझे यातायात का राष्ट्रीय साधन (प्रतीक) घोषित कर देना चाहिए। वैसे अगर सरकार न भी करे तो भी मेरी सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि मैं उसी प्रकार यातायात का राष्ट्रीय साधन हूँ, जिस प्रकार हिन्दी अपने बलबूते पर राष्ट्रीय भाषा। अन्त में मैं अपनी बहनों और उसके मालिकों से यही कहना चाहूंगी कि ऊँची प्राचीरों के किलों पर भले ही तुम्हारा परचम रहे, पर आम लोगों के दिलों पर हुकूमत हमारी ही रहेगी
डॉं चन्द्रशेखर तिवारीसोनभद्र (उ.प्र.) मोबाइल नम्बर- 9415970693,7905167669
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