रंग हरा
हरे रंग से ज़्यादा नहीं मोहे कोई रंग मोहे
जो डाला था साँवरिया ने मुझ पर सोहे।
हरियाली रहे ज़िंदगानी में रहे रास्ता हरा
वसुंधरा की गोद हरी हो और श्रृंगार भरा।
हरी चूड़ियाँ, हरी हो चूनर मन हो सुनहरा
सम्पन्नता का प्रतीक है तिरंगे में रंग हरा।
प्रसून लताएँ इठलाएँ पल-पल हर्षाएँ तोहे
कविगण गाएँ गीत ग़ज़ल छंद चौपाई दोहे।
यूँ न कहते 'सावन के अंधे को सब हरा'
बरखा को देख मुदित हुआ मन पपीहरा।
आँखों को मिले सुक़ून प्रकृति ने मन हरा
गुनगुनाते हैं विहंग ख़ुशी लुटाती हुई धरा।
-डॉ नीलू समीर
/जीवनसाथी
कौन है जो जीवन पर्यंत साथ निभाएगा
जीवनसाथी का हमें ही ख़याल रखना है।
ये हमारा शरीर ही तो देगा अंत तक साथ
इसके हर एक पुर्जे को संभाल रखना है।
आधि-व्याधि को मन औ तन से दूर भगा
किसी किस्म का न कोई बवाल रखना है।
उदर का पोषण सही कर आहार-विहार
खान-पान तालिका का सवाल रखना है।
अपने ह्रदय को रखें जवाँ वसा से हो दूर
ख़ुशी को थामे हुए रक्त में उबाल रखना है।
रक्तचाप, मधुमेह को दूर भगा स्वस्थ रहें
सेहत प्रथम स्वाद गौड़; ख़याल रखना है।
आँखों, कानों, हाथ-पैरों, त्वचा, केश हेतु
विटामिन प्रोटीन फ़ाइबरयुक्त थाल रखना है।
किडनी, लिवर, हृदय की करना देखरेख
जीवनसाथी इन अंगों का ख़याल रखना है।
-डॉ नीलू समीर
शीर्षक : रूठी सखियाँ
न जाने कब से ठीक से मैं सोई नहीं थी
अपने ख़ुद के खयालों में खोई नहीं थी
आज मेरी स्नेही सखियों ने छेड़ी लड़ाई ...
'स्वास्थ्य' नामक सखी एकदम थी रूठी
बोली तुम तो मुझे सुहाती न आँखों फूटी
मेरा तो तुम कभी ख़याल ही नहीं रखतीं...
'सौंदर्य' बोली मैं चली गई तुमसे बहुत दूर
कभी परवाह न की बस करती रहीं ग़ुरूर
अब तुम मुझे कभी अपने पास न पाओगी...
'खुशी' बोली दुनियावी बातों की चाह है
मैं तो चली अब मेरी कहाँ तुम्हें परवाह है
घूमो भौतिक संसार में, मैं नहीं आऊँगी...
ये क्या प्रिय सखी 'नींद' भी बैठी गुस्साई
कभी पूरी न होने दी रही आँखें अलसाई
खाओ नींद की गोलियाँ मैं नहीं आऊँगी...
मत जाओ मुझसे दूर ! रुको ! मैं घबराई
सबके पैर पकड़कर रोका मैं गिड़गिड़ाई
रखूँगी मैं ध्यान, पर कोई सखी न आई...
- डॉ नीलू समीर
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