कब से मैं राह निहारि रही सखि
अब आऐंगे मोरे मनभावन
मनभावन मोरे पिया नहिं आऐ
और आई गयौ निगोड़ौ ये सावन
मेह परे जब जब री सखी सुनि
औरन के हिय की प्यास बुझति है
पर मोरी पिया मिलन की प्यास बढ़ति है
झूमि रही सखि तरूअन की डारी डारी
नाचे मोर, पपीहा,गाय रही कोयल मतवारी
सब सखियाँ मिलि झूला झूलें
सावन की मस्ती में सुधि बुधि सब भूलें
गावैं हरषि हरषि राग मल्हार री
मैं बिरहिन पी की याद में झूलूं
नैन मोरे बरसावैं मूसलधार री
श्रृंगार सखि कछु मोहे न भावै
पीय बिनु सावन मोहि जलावै
कासै कहुं सखि बिरह की बतिया
जागति रहति मैं सिगरी रतियाँ।
सुधा बसोर
वैशाली(गाजियाबाद)
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