आज राखी के पावन से त्यौहार पर
कैसे सज के खड़ी थी बहन द्वार पर
थाल उसने सजाया बड़े प्यार से
प्रेम है भिन्न भाई का संसार से
स्नेह का तेल भावों की बाती जली
प्रेम से थी रखी एक गुड़ की डली
रखली रोली लगाने को फिर भाल पर
आजखुशियों की लाली सजी गाल पर
राह भाई की दर पर खड़ी देखती
वक्त का हर पहर हर घड़ी देखती
एक आया मुसाफिर वो अनजान था
क्यों उदासी में आया ये मेहमान था
वो तो देकर चला एक ऐसी खबर
सुनके बेहाश सी हो गई बेखबर
देश सीमा से आया वो पैगाम था
कुछ शहीदों में भाई का भी नाम था।
अश्रु की एक नदी बह रही थी वहाँ
किसको बाँधू ये राखी मैं जाऊँ कहाँ।
ज्योति शर्मा, जयपुर
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