फ़िल्म के लिए भाषा दीवार नहीं-अभिलाष दत्ता


फिल्‍म समीक्षा


हाल में  कन्नड़ भाषा की फिल्म तिथि देखने को मिला। फ़िल्म देखने के बाद यह बात समझ में आया कि फ़िल्म देखने के लिए भाषा की दीवार बाधा नहीं पहुँचाती है। 2016 में आयी इस फिल्म को गत वर्ष नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया था। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फिल्म को काफी सराहा गया। फिल्म के लेखन और निर्देशन रामा रेड्डी के द्वारा किया गया है। फिल्म के सभी कलाकार इस क्षेत्र के पेशेवर नहीं थे। फिल्म की लोकेशन कर्नाटक के मंड्या जिला के एक छोटे से गाँव की है।फिल्म में तीन पीढ़ी के अंतर को दिखाया गया है। चैथी पीढ़ी में एक छोटा सी ही सही लेकिन बड़ी खूबसूरत प्यार दिखाने में सफल हुई है।बहुत ही साधारण कहानी को लेकर फिल्म बनाई गई है। पर इस फिल्म के निर्देशन ने इसमें जान डाल दी है। एक पल के लिए भी आपको अपने जगह से हिलने नहीं देगी। आपको देख कर यह लगेगा की सब कुछ सही हो रहा है, पर काफी सारे सवाल आपको परेशान करेंगे। जिसका जवाब नहीं मिलेगा, क्योंकि हम समाज में घिरे हुए है।


फिल्म की शुरुआत होती है सेंचुरी गौड़ा से जो 101 साल के है और उनका स्वर्गवास हो जाता है। शताब्दी दादा का बड़ा बेटा जो खुद 70- 80 साल का रहता है, वह गाँव का शराबी है जो दिन भर पागलों की तरह घूमते रहता है। यहाँ हिन्दू धर्म की विवशता को बहुत ही सही तरीके में दिखाया गया है , की चिता को मुखाग्नि बड़ा बेटा ही देगा। चाहे बड़ा बेटा जिस हाल में भी हो। बेटा आग दे कर फिर घुमन्तु जीवन जीने चला जाता है। भारत के किसी भी कोने में हिन्दू धर्म में कोई मरता है तो उसका परिवार भोज देने के लिए बाध्य हो जाता है। आप इसके खिलाफ सवाल नहीं कर सकते हैं। अगर आप सवाल करते है, तो आप अपने समाज को गलत ठहरा रहे है और समाज पर उंगली उठाने का मतलब बहुत बुरा होता है।
अब उस भोज की जिम्मेदारी आती है सेंचुरी गौड़ा के पोते पर और भोज की जो “तिथि” निर्धारित गाँव के ब्राह्मण के द्वारा साथ में उसको यह भी निर्देश मिलता है कि सेंचुरी गौड़ा 101 वर्ष के थे, तो कम से कम 500 लोगों को भोज में निमंत्रण भेजना होगा। वह इतने लोगों के भोज देने में असमर्थ है। लेकिन, समाज मे रहने के कारण वह बेबस है और साथ में बेबस हैं फिल्म को देखने वाले दर्शक वह जान रहे होते है कि यह गलत है। लेकिन, सच्चाई सभी जानते है कि समाज में रहना है तो भोज देना ही होगा। लोग मरने वाले की आत्मा शांति की बजाय मटन कैसा बना है यह चर्चा करते हैं। इसे फिल्म में देखना अपने समाज की याद दिलाता है।
उसका पोता उस भोज के लिए कैसे इंतजाम करता है इसी चीज को फिल्म में दिखाया गया है। हालात उसे इतना कमजोर बना देती है कि वह अपने जिंदा बाप का भी डेथ सर्टिफिकेट बनवा लेता है, ताकि भोज हो सके। एक दृश्य जहाँ दिमाग अटकता है। चैथी पीढ़ी का लड़का जो अपने मोबाइल पर ब्लू फिल्में देखता है और फिर प्यार में पड़ता है। यह दृश्य आज के युवा पीढ़ी को दर्शाती नजर आती है ।



समीक्षक :-
अभिलाष दत्ता-पटना


 



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